सचेतन 2.45: रामायण कथा: सुन्दरकाण्ड – उत्साह का आश्रय
रावण के राजभवन में जब हनुमान् जी सीताजी के दर्शन के लिये उत्सुक हो कर क्रमशः लतामण्डपों में, चित्रशालाओं में तथा रात्रिकालिक विश्रामगृहों में गये; परंतु वहाँ भी उन्हें परम सुन्दरी सीता का दर्शन नहीं हुआ।
रघुनन्दन श्रीराम की प्रियतमा सीता जब वहाँ भी दिखायी न दी, तब वे महाकपि हनुमान् इस प्रकार चिन्ता करने लगे- ‘निश्चय ही अब मिथिलेशकुमारी सीता जीवित नहीं हैं; इसीलिये बहुत खोजने पर भी वे मेरे दृष्टिपथ में नहीं आ रही हैं।
सती-साध्वी सीता उत्तम आर्यमार्ग पर स्थित रहने वाली थीं। वे अपने शील और सदाचार की रक्षा में तत्पर रही हैं; इसलिये निश्चय ही इस दुराचारी राक्षसराज ने उन्हें मार डाला होगा।
इस प्रकार से सीता के मरण की आशंका से हनुमान्जी को शिथिल कर रही थी, फिर उत्साह का आश्रय ले उनकी खोज करने में हनुमान जी फिर से जुट गये और कहीं भी पता न लगने से पुनः उनका चिन्तिन शुरू हो गया।
राक्षसराज रावण के यहाँ जो दास्यकर्म करने वाली राक्षसियाँ हैं, उनके रूप बड़े बेडौल हैं। वे बड़ी विकट और विकराल हैं। उनकी कान्ति भी भयंकर है। उनके मुँह विशाल और आँखें भी बड़ी-बड़ी एवं भयानक हैं। उन सबको देखकर जनकराजनन्दिनी ने भय के मारे प्राण त्याग दिये होंगे।
सीता का दर्शन न होने से मुझे अपने पुरुषार्थ का फल नहीं प्राप्त हो सका। इधर वानरों के साथ सुदीर्घ काल तक इधर-उधर भ्रमण करके मैंने लौटने की अवधि भी बिता दी है; अतः अब मेरा सुग्रीव के पास जाने का भी मार्ग बंद हो गया; क्योंकि वह वानर बड़ा बलवान् और अत्यन्त कठोर दण्ड देने वाला है।
मैंने रावण का सारा अन्तःपुर छान डाला, एक एक करके रावण की समस्त स्त्रियों को भी देख लिया; किंतु अभी तक साध्वी सीता का दर्शन नहीं हुआ; अतः मेरा समुद्रलङ्घन का सारा परिश्रम व्यर्थ हो गया।
जब मैं लौटकर जाऊँगा, तब सारे वानर मिलकर मुझसे क्या कहेंगे; वे पूछेगे, वीर! वहाँ जाकर तुमने क्या किया है—यह मुझे बताओ। किंतु जनकनन्दिनी सीता को न देखकर मैं उन्हें क्या उत्तर दूंगा। सुग्रीव के निश्चित किये हुए समय का उल्लङ्घन कर देने पर अब मैं निश्चय ही आमरण उपवास करूँगा।
बड़े-बूढ़े जाम्बवान् और युवराज अंगद मुझसे क्या कहेंगे? समुद्र के पार जाने पर अन्य वानर भी जब मुझसे मिलेंगे, तब वे क्या कहेंगे?
(इस प्रकार थोड़ी देर तक हताश-से होकर वे फिर सोचने लगे-) हताश न होकर उत्साह को बनाये रखना ही सम्पत्ति का मूल कारण है। उत्साह ही परम सुख का हेतु है; अतः मैं पुनः उन स्थानों में सीता की खोज करूँगा, जहाँ अबतक अनुसन्धान नहीं किया गया था।
उत्साह ही प्राणियों को सर्वदा सब प्रकार के कर्मों में प्रवृत्त करता है और वही उन्हें वे जो कुछ करते हैं उस कार्य में सफलता प्रदान करता है। इसलिये अब मैं और भी उत्तम एवं उत्साहपूर्वक प्रयत्न के लिये चेष्टा करूँगा। रावण के द्वारा सुरक्षित जिन स्थानों को अब तक नहीं देखा था, उनमें भी पता लगाऊँगा। आपानशाला, पुष्पगृह, चित्रशाला, क्रीड़ागृह, गृहोद्यान की गलियाँ और पुष्पक आदि विमान-इन सबका तो मैंने चप्पा-चप्पा देख डाला (अब अन्यत्र खोज करूँगा)। यह सोचकर उन्होंने पुनः खोजना आरम्भ किया।
वे भूमि के भीतर बने हुए घरों (तहखानों)-में, चौराहों पर बने हुए मण्डपों में तथा घरों को लाँघकर उनसे थोड़ी ही दूर पर बने हुए विलास-भवनों में सीता की खोज करने लगे। वे किसी घर के ऊपर चढ़ जाते, किसी से नीचे कूद पड़ते, कहीं ठहर जाते और किसी को चलते-चलते ही देख लेते थे। घरों के दरवाजों को खोल देते, कहीं किंवाड़ बंदकर देते, किसी के भीतर घुसकर देखते और फिर निकल आते थे। वे नीचे-कूदते और ऊपर उछलते हुए-से सर्वत्र खोज करने लगे।
उन महाकपि ने वहाँ के सभी स्थानों में विचरण किया। रावण के अन्तःपुर में कोई चार अंगुल का भी ऐसा स्थान नहीं रह गया, जहाँ कपिवर हनुमान जी न पहुँचे हों। उन्होंने परकोटे के भीतर की गलियाँ, चौराहे के वृक्षों के नीचे बनी हुई वेदियाँ, गड्डे और पोखरियाँ सबको छान डाला।
हनुमान् जी ने जगह-जगह नाना प्रकार के आकार वाली, कुरूप और विकट राक्षसियाँ देखीं; किंतु वहाँ उन्हें जानकीजी का दर्शन नहीं हुआ। संसार में जिनके रूप-सौन्दर्य की कहीं तुलना नहीं थी ऐसी बहुत-सी विद्याधरियाँ भी हनुमान जी की दृष्टिमें आयीं; परंतु वहाँ उन्हें श्रीरघुनाथजी को आनन्द प्रदान करने वाली सीता नहीं दिखायी दीं।
हनुमान जी ने सुन्दर नितम्ब और पूर्ण चन्द्रमा के समान मनोहर मुखवाली बहुत-सी नागकन्याएँ भी वहाँ देखीं; किंतु जनककिशोरी का उन्हें दर्शन नहीं हुआ। राक्षसराज के द्वारा नागसेना को मथकर बलात् हरकर लायी हुई नागकन्याओं को तो पवनकुमार ने वहाँ देखा; किंतु जानकीजी उन्हें दृष्टिगोचर नहीं हुईं। महाबाहु पवनकुमार हनुमान् को दूसरी बहुत-सी सुन्दरियाँ दिखायी दी; परंतु सीताजी उनके देखने में नहीं आयीं। इसलिये वे बहुत दुःखी हो गये।
उन वानरशिरोमणि वीरों के उद्योग और अपने द्वारा किये गये समुद्रलंघन को व्यर्थ हुआ देखकर पवनपुत्र हनुमान् वहाँ पुनः बड़ी भारी चिन्ता में पड़ गये।उस समय वायुनन्दन हनुमान् विमान से नीचे उतर आये और बड़ी चिन्ता करने लगे। शोक से उनकी चेतनाशक्ति शिथिल हो गयी।
सीताजी के नाश की आशंका से हनुमान्जी की चिन्ता, श्रीराम को सीता के न मिलने की सूचना देने से अनर्थ की सम्भावना देख हनुमान का पुनः खोजने का विचार करने लगे।