सचेतन, पंचतंत्र की कथा-65 : कपिंजल खरगोश

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सचेतन, पंचतंत्र की कथा-65 : कपिंजल खरगोश

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यह कहानी है एक खरगोश की, जो प्राचीन काल में एक वृक्ष के नीचे रहते थे। गौरैया नामक पक्षी भी उसी वृक्ष पर रहता था, और खरगोश, जिसका नाम कपिंजल था, उसी पेड़ के खोखले में रहता था। वे दोनों शाम के समय अपने-अपने दिन की बातें करते और आपस में अनेक आश्चर्यजनक बातें साझा करते।

एक बार, कपिंजल कुछ अन्य खरगोशों के साथ चारा खाने के लिए दूसरे स्थान पर गया। लेकिन जब वह रात होने पर भी वापस नहीं लौटा, तो गौरैया बहुत चिंतित हो गया और सोचने लगा कि कहीं कपिंजल को किसी ने पकड़ तो नहीं लिया, या उसके साथ कुछ बुरा तो नहीं हुआ।

कई दिन बीत गए और एक दिन, जब सूरज डूब रहा था, एक खरगोश जिसका नाम शीघ्रग था, उसी खोखले में आकर रहने लगा। गौरैया ने उसे रोका नहीं, क्योंकि उसने कपिंजल की आशा छोड़ दी थी।

लेकिन कुछ समय बाद, कपिंजल धान खाकर पुष्ट होकर वापस लौट आया और अपने घोंसले की याद में वापस अपने घर आ गया। यह सच है कि जितना सुख अपने घर में, अपने देश में मिलता है, वह स्वर्ग में भी नहीं मिलता। यह पंक्ति वास्तव में बहुत सुंदर है और इसमें गहरा अर्थ छुपा हुआ है। यह दिखाता है कि अपने देश, अपने नगर, और अपने घर में होने का जो आनंद है, वह कहीं और नहीं मिल सकता। अपने स्थान से जुड़ाव और उसमें मिलने वाला सुख ही सच्ची खुशी का स्रोत है, चाहे परिस्थितियाँ कैसी भी हों।

अब  कपिंजल ने शीघ्रग खरगोश से कहा, “अरे! यह तो मेरा घर है। तू जल्दी से यहाँ से निकल।” खरगोश ने उत्तर दिया, “नहीं, यह घर तेरा नहीं, मेरा है। तू क्यों मुझसे बुरा बर्ताव कर रहा है?”

शीघ्रग खरगोश ने आगे कहा, “देखो, कहा गया है कि बावड़ी, कुआं, तालाब, मंदिर और पेड़ों को एक बार छोड़ने पर फिर से उन पर अपना हक जमाना संभव नहीं है। इसी तरह, अगर कोई दस साल तक खेत को उपयोग करता रहे तो उसका वह उपयोग ही उस खेत के मालिक होने का सबूत है, न कि केवल कागजात। यह नियम मनुष्यों के लिए ऋषियों ने बनाया है और पशुओं व पक्षियों के लिए भी जब तक वे एक जगह पर रहते हैं तब तक उनका वहां पर हक है।”

यह उद्धरण प्राचीन भारतीय धार्मिक और नैतिक शिक्षाओं से जुड़ा प्रतीत होता है, जो प्रकृति और समाज के साथ मनुष्यों के संबंधों पर विचार करता है। यहां कहा गया है कि जिस प्रकार बावड़ी, कुआं, तालाब, मंदिर और पेड़ों को एक बार छोड़ने के बाद उन पर फिर से हक जमाना संभव नहीं होता, उसी तरह अगर कोई व्यक्ति दस वर्ष तक लगातार खेत को उपयोग में लाए तो वह उपयोग ही उस खेत के मालिक होने का सबूत माना जाएगा। यह नियम मनुष्यों के साथ-साथ पशुओं और पक्षियों के लिए भी लागू होता है जब तक कि वे एक निश्चित स्थान पर निवास करते हैं।

इस उद्धरण में धरोहर और संस्कृति के संरक्षण के साथ-साथ प्रकृति के प्रति सम्मान और स्थायित्व की भावना को भी दर्शाया गया है। 

इसलिए खरगोश ने कहा, “इसलिए यह घर मेरा है, तेरा नहीं।” कपिंजल ने कहा, “अरे! अगर तू धर्म-शास्त्र के इतने सबूत मानता है, तो चल मेरे साथ। हम दोनों किसी धर्म-शास्त्रज्ञ से मिलकर इस बारे में पूछताछ कर लेते हैं कि यह खोखला किसका है। जो धर्म-शास्त्रज्ञ कहेगा, वहीं सही होगा।”

इस प्रकार उन दोनों ने आपस में समझौता करने का निर्णय लिया।

यहाँ क्या हो रहा है? मुझे भी यह न्याय देखना है।” ऐसा कहते हुए गौरैया भी उनके पीछे चल पड़ा। उसी समय, एक जंगली बिल्ला जिसका नाम तीक्ष्णदंश था, उनकी  बातचीत सुनकर रास्ते में आ गया। नदी के किनारे पहुँचकर, हाथ में कुशा लिए, एक आँख बंद करके और एक हाथ ऊपर उठाकर, पंजों के बल खड़े होकर सूरज की ओर देखते हुए उसने धर्म का उपदेश देना शुरू किया – “अरे! यह संसार असार है, जीवन क्षणभंगुर है, प्रियजनों से मिलना सपने की तरह है और परिवार का संगठन जादू की तरह है। इसलिए धर्म के बिना कोई दूसरा सहारा नहीं है। यह कहा गया है कि – “शरीर अनित्य है, धन सदा नहीं रहता, मृत्यु हमेशा पास में है, इसलिए हमें धर्म को संचित करना चाहिए। “जो लोग बिना धर्म के दिन गुजारते हैं, वे लोहार की भट्टी की तरह जीते हैं लेकिन असल में जी नहीं पाते। “जिस तरह कुत्ते की पूँछ अपने गुप्त भाग को नहीं ढक सकती और न ही डंसने वाले कीड़ों को रोक सकती है, उसी तरह धर्म के बिना पांडित्य भी पाप को दूर करने में असमर्थ हो जाता है और निरर्थक बन जाता है।

यह उद्धरण व्यक्ति के जीवन में धर्म की महत्ता पर बल देता है, और यह बताता है कि कैसे धर्म के बिना विद्या भी अपना महत्व खो देती है। इस उद्धरण के द्वारा यह समझाया गया है कि जीवन में धार्मिक और नैतिक मूल्यों का होना कितना जरूरी है। जिस तरह लोहार की भट्टी लगातार गर्म रहती है लेकिन उसमें कोई जीवन नहीं होता, उसी तरह बिना धर्म के जीवन भी बेजान सा हो जाता है। और कुत्ते की पूँछ का उदाहरण देकर यह दर्शाया गया है कि बिना धर्म के, पांडित्य या ज्ञान भी पाप या बुराई से नहीं बचा सकता।

धर्महीनता को पशुओं के जीवन से तुलना करके दिखाया गया है, जिसमें केवल भौतिक क्रियाओं का महत्व होता है, आध्यात्मिक या नैतिक उद्देश्यों के बिना। नीति-शास्त्र के पंडितों की यह धारणा कि धर्मकार्यों में अनेक विघ्न आते हैं, इसलिए उन्हें जल्दी से करने की आवश्यकता है, धर्म के प्रति उत्कटता और अनिवार्यता को दर्शाता है।इस बात में धर्म और नीति-शास्त्र के संबंधों की गहराई को समझने की दिशा में एक स्पष्ट दृष्टिकोण प्रकट होता है। धर्महीनता का जीवन को पशुओं के जीवन के समान मानना यह दर्शाता है कि कैसे भौतिक और शारीरिक क्रियाकलापों की प्रधानता, उच्चतर मानवीय गुणों जैसे आध्यात्मिकता और नैतिकता को गौण बना देती है।

इन विचारों का आदान-प्रदान करना और उन्हें आगे बढ़ाना, व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में धर्म के महत्व को और अधिक स्पष्ट कर सकता है।

कहानी का संदेश यह है कि मनुष्य को धर्म का मूल सार समझना चाहिए, जो परोपकार और दूसरों के प्रति दयाभाव है। इस कहानी के माध्यम से एक महत्वपूर्ण संदेश साझा किया गया है कि मानवता और दयालुता जैसे मूल्य वास्तव में किसी भी धर्म के केंद्र में होते हैं। यह संदेश यह बताता है कि सच्चा धर्म न केवल रीति-रिवाजों और परंपराओं में ही नहीं होता, बल्कि इसकी गहराई में दूसरों के प्रति सहानुभूति और सहयोग की भावना भी शामिल होती है। अंत में, खरगोश और कपिंजल की बातचीत से यह भी जाहिर होता है कि किसी भी ज्ञान की खोज में सावधानी और विवेक का होना आवश्यक है, खासकर जब वह ज्ञान हमारे स्वाभाविक दुश्मन से आ रहा हो।

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