सचेतन- बुद्धचरितम् 29 छब्बीसवाँ सर्ग : दुख से मुक्ति

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सचेतन- बुद्धचरितम् 29 छब्बीसवाँ सर्ग : दुख से मुक्ति

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बुद्ध के निर्वाण के अंतिम समय की बात है। एक त्रिदण्डी मुनि जिसका नाम सुभद्र था, वह बुद्ध को देखने और उनसे मिलने आया। वह बुद्ध से धर्म के बारे में जानना चाहता था, लेकिन उनके प्रमुख शिष्य आनन्द को यह चिंता थी कि शायद सुभद्र धर्म के बहाने वाद-विवाद करेगा, इसलिए उन्होंने उसे मिलने से रोक दिया।

लेकिन बुद्ध, जो सभी लोगों की आशय (मन की बात) को समझते थे, उन्होंने कहा—
“हे आनन्द! उसे मत रोको।”

बुद्ध की आज्ञा पाकर सुभद्र उनके पास गया और विनम्रता से बोला
“हे कृपा के सागर! आप सभी दार्शनिकों और मतों से अलग हैं, कृपया मुझे अपना सच्चा मार्ग बताएं।”

तब बुद्ध ने उसे ध्यानपूर्वक धर्म का मार्ग समझाया— एक ऐसा मार्ग जो मनुष्य को दुखों से मुक्ति दिलाता है और अंततः निर्वाण की ओर ले जाता है।

यह पंक्ति भगवान बुद्ध की करुणा और ज्ञान का प्रतीक है। 

बुद्ध का मार्गदर्शन: दुख से मुक्ति और निर्वाण की ओर

जब कोई व्यक्ति दुखी होकर बुद्ध के पास आया,
बुद्ध ने उसे शांत चित्त से ध्यानपूर्वक समझाया

“यह जो जीवन है, उसमें दुख हैं।
पर मैं तुम्हें एक ऐसा मार्ग दिखाता हूँ,
जो इन दुखों से मुक्ति दिला सकता है।
यह मार्ग है — धर्म का मार्ग।

यह मार्ग सत्य, करुणा, ध्यान और समझ पर आधारित है।
यदि तुम इस मार्ग पर चलोगे,
तो अंत में तुम निर्वाण, यानी परम शांति को प्राप्त कर सकोगे।”

 बुद्ध हमें सिखाते हैं कि जीवन में चाहे कितनी भी कठिनाइयाँ हों,
अगर हम धर्म के रास्ते पर चलें —
तो हम भीतर से शांत, मुक्त और आनंदित हो सकते हैं।

यह प्रसंग अत्यंत मार्मिक और गहन श्रद्धा का प्रतीक है। सुभद्र की यह घटना न केवल बुद्ध के उपदेश की प्रभावशाली शक्ति को दर्शाती है, बल्कि एक सच्चे शिष्य की भक्ति और आत्मसमर्पण का भी उदाहरण है। 

सुभद्र की श्रद्धा: गुरु के चरणों में जीवन समर्पण

जब सुभद्र ने बुद्ध के उपदेशों को सुना,
तो उसका हृदय जाग उठा।
उसे सच्चे ज्ञान की प्राप्ति हुई।
उसने अपने पुराने विश्वासों को त्याग दिया,
और पूरी श्रद्धा से बुद्ध के धर्म को अपनाया।

यह परिवर्तन इतना गहरा और सच्चा था
कि उसने अपने प्राण भी गुरु के निर्वाण से पहले ही त्याग दिए।
मानो वह कह रहा हो—
“अब मुझे और कुछ नहीं चाहिए,
गुरु की शरण ही मेरे जीवन की पूर्णता है।”
सुभद्र की यह कथा हमें सिखाती है कि
जब शिष्य सच्चे हृदय से सत्य को ग्रहण करता है,
तो वह जीवन और मृत्यु के पार, आत्मा की शांति को प्राप्त करता है।

बुद्ध के अन्य शिष्यों ने, जो संस्कारों को अच्छी तरह जानते थे, सुभद्र का सम्मानपूर्वक अंतिम संस्कार किया।

इसके बाद, महात्मा बुद्ध ने अपने अंतिम शब्दों में कहा कि—
“मेरे जाने के बाद मेरे उपदेशों को ही अपना गुरु मानना और उसी के अनुसार आचरण करना।”

यह भगवान बुद्ध के जीवन का सबसे महत्वपूर्ण और अंतिम संदेश है — जहाँ उन्होंने अपने शिष्यों को आत्मनिर्भरता और धर्म-आधारित जीवन का मार्ग दिखाया। 

बुद्ध का अंतिम संदेश: धर्म ही गुरु है

जब महात्मा बुद्ध के जीवन का अंतिम क्षण आया,
तो उन्होंने शांत स्वर में अपने शिष्यों से कहा:

मेरे जाने के बाद मेरे उपदेशों को ही अपना गुरु मानना।
उन्हीं के अनुसार आचरण करना, वही तुम्हें सही राह दिखाएँगे।

यह वचन बुद्ध की महानता को दर्शाता है —
वे चाहते थे कि उनके अनुयायी किसी व्यक्ति पर नहीं, बल्कि सत्य और धर्म पर विश्वास करें।

 इस उपदेश से हम सीखते हैं कि
सच्चा ज्ञान वह होता है जो समय के साथ भी टिकता है,
और सच्चा गुरु वही होता है जो हमें अपने पैरों पर चलना सिखाता है।

फिर बुद्ध ने ध्यान विधि के माध्यम से शांतिपूर्वक अपना शरीर त्याग दिया और सदा के लिए निर्वाण की अवस्था में लीन हो गए।

बहुत ही शांत और गहन भावों से भरी यह अंतिम कड़ी है — भगवान बुद्ध की निर्वाण यात्रा का समापन। 

शांतिपूर्ण निर्वाण

अपने अंतिम उपदेशों के बाद,
बुद्ध ध्यान की अवस्था में चले गए।

वे धीरे-धीरे अपने श्वासों को नियंत्रित करते हुए,
अपने मन, प्राण और शरीर को एकाग्र करके,
पूर्ण शांति की ओर अग्रसर हुए।

फिर, बिना किसी दुख या भय के,
बुद्ध ने शांतिपूर्वक अपना शरीर त्याग दिया
और सदा के लिए निर्वाण की अवस्था में लीन हो गए।

 बुद्ध की यह अंतिम यात्रा हमें यह सिखाती है कि
सच्चा जीवन वह है जो शांति और विवेक से जिया जाए,
और सच्चा अंत वह है जो बिना मोह और भय के स्वीकार किया जाए।इस प्रकार यह सर्ग बुद्ध के जीवन का अंतिम और सबसे गूढ़ क्षण दिखाता है, जिसमें वे अंतिम समय तक भी किसी को सच्चे मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते हैं।

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