सचेतन 211: शिवपुराण- वायवीय संहिता – परमात्मा और पशु या यिन और यांग जिसे ब्रह्माण्ड की दो शक्तियों के रूप में माना गया है।
जीवन में वास्तविकता और आपके चेतना के बीच का संतुलन ‘पशुपति’ बना देता है।
मानव पशु से भिन्न है क्योंकि हम सचेत प्राणी हैं और स्वयं को नियंत्रित कर सकते हैं। जानवरों में भी चेतना होती है, लेकिन उनकी चेतना हमारी तरह विकसित नहीं है।
हमारा मानस उन सभी आदिम प्रवृत्तियों का भंडार है जो हमने विकास की प्रक्रिया के दौरान अर्जित की थीं। ये वृत्तियाँ और प्रवृत्तियाँ वेशक हमें जानवर बनाती हैं लेकिन एक बार जब हम मानव बन जाते हैं, तो हम पूरी तरह से अपने पशु स्वभाव से आगे निकल सकते हैं और दिव्य चेतना प्राप्त कर सकते हैं। भगवान पशुपति इसी का प्रतीक हैं।
‘पशुपति’ का अर्थ है ‘पशु का भगवान’। कोई व्यक्ति जो अपने पशुवत स्वभाव को पार कर चुका है, कोई जो अब किसी पाश के भीतर नहीं है, कोई जो पशु स्वभाव के हर रूप से मुक्त है, उसे पशुपति कहा जा सकता है। भगवान शिव इस अतिक्रमण के प्रतीक हैं। इसीलिए, उन्हें पशुपति कहा जाता है।
क्या चीज़ हमें जानवर बनाती है? हमारी भूख और यह भूख आपके शब्द में भी है और आपके रूप में भी है। आपकी इच्छाएँ, भय, अतीत की आदिम छापें – ये वो चीज़ें हैं जो हमें जानवर बनाती हैं। क्या आपने नहीं देखा, कभी-कभी जब हम शुद्ध होते हो, तो स्वार्थी इच्छाओं से मुक्त होते हैं और प्रेम तथा भक्ति से भरे होते हैं तो हम भगवान की तरह व्यवहार करते हैं? और कभी-कभी आप एक जानवर बन जाते हैं, जब आप स्वार्थी, लालची, क्रोधी, अहंकारी, कुत्ते की तरह हिंसक हो जाते हैं। हम अपने भीतर इन दो आयामों के बीच झूलते रहते हैं।
हममें से प्रत्येक के ये दो पहलू हैं- परमात्मा और पशु। चीनी प्रतीक ताइजीतु इसी का प्रतीक है- यिन और यांग जिसे ब्रह्माण्ड में दो शक्तियों के रूप में माना गया है। यह दार्शनिक अवधारणा है जो विपरीत लेकिन परस्पर जुड़ी शक्तियों का वर्णन करती है जो हमारे ब्रह्माण्ड के विज्ञान में वस्तुओं और जीवन के साथ साथ चलता है।
यिन यानी जो ग्रहणशील है और यांग अर्थात् सक्रिय सिद्धांत है, जो सभी प्रकार के परिवर्तन और अंतर में देखा जाता है जैसे कि वार्षिक चक्र (सर्दी और गर्मी), परिदृश्य (उत्तर की ओर छाया और दक्षिण की ओर की चमक), लिंग (महिला और पुरुष), पात्रों के रूप में पुरुषों और महिलाओं दोनों का गठन, और सामाजिक-राजनीतिक इतिहास (अव्यवस्था और व्यवस्था)।
जैसे जैसे हम ‘पशुपति’ यानी अपने पशुवत स्वभाव को पार करने का अभ्यास करते हैं तो परमात्मा और पशु, यिन और यांग, हमारी विपरीत अवधारणा एक साथ होता महसूस होने लगता है। इस एकता को आप अपनी चेतना और निरन्तर तपस्या, योग और सचेतन होने की अवस्था के माध्यम से जान सकते हैं क्योंकि यह हमारे अंदर का द्वंद्व और विरोधाभास है जो आदिम प्रवृत्तियों के कारण, हमारे मस्तिष्क के निचले हिस्से को सरीसृप मस्तिष्क के प्रभाव से, हमारी सभ्यता, संस्कृति, संस्कार कुछ मूलों बंधनों से जकड़ी अस्तित्व, समाज और परिवार के साथ जुड़ी होती हैं।
‘पशुपति’ को व्यक्त करने के प्रयास में मेहनत लगता है। यहाँ यिन और यांग को पूरक (विरोधी के बजाय) ताकतों के रूप में सोचा जा सकता है जो एक गतिशील प्रणाली बनाने के लिए अपने आपको अपनी सोच को तैयार करना, उसके लिए स्वयं से बातचीत करना जिसमें संपूर्ण होने का भाव है इकट्ठा करना है जो हर चीज़ में यिन और यांग दोनों पहलू को स्वीकार करता है।
उदाहरण के लिए, छाया प्रकाश के बिना मौजूद नहीं हो सकती। अवलोकन की कसौटी के आधार पर, दोनों प्रमुख पहलुओं में से कोई भी किसी विशेष वस्तु में अधिक मजबूती से प्रकट हो सकता है। यिन और यांग प्रतीक (या ताईजितु) प्रत्येक अनुभाग में विपरीत तत्व के एक हिस्से के साथ दो विपरीत तत्वों के बीच संतुलन दिखाता है।