सचेतन 236: शिवपुराण- वायवीय संहिता – भगवान शिव ने उपमन्यु को अपनी परम भक्ति प्रदान किया

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उपमन्यु शिव और पार्वती के पुत्र के समान हैं 

भगवान विष्णु के अनुरोध करने पर शिवजी ने बालक उपमन्यु के संकल्प की परीक्षा लेनी चाही और उनके पास देवराज इन्द्र के रूप में गये और कहा की तुम देवराज इन्द्र  शरण की में आ जाओ मैं तुम्हें सब कुछ दूँगा और उस निर्गुण रूद्र यानी शिव की तपस्या को त्याग दो। 

यह सुनकर परम बुद्धिमान शिव भक्त उपमन्यु इन्द्र को अपनी तपस्या में विघ्न डालने वाला जानकर बोले – ‘हे देवराज, यद्यपि आप भगवान शिव की निंदा में तत्पर हैं और आपने उन्हें निर्गुण कहकर उनकी महत्ता को स्पष्ट कर दिया है। आप नहीं जानते की वो देवों के भी ईश्वर हैं तथा प्रकृति से परे हैं और मैं शिव की तपस्या में ही लीन रहूँगा, उनकी ही उपासना करके मैं सिर्फ़ उन्हीं भगवान शिव से वर मांगूँगा अन्यथा अपने प्राण त्याग दूँगा पर अपने इष्ट की निंदा नहीं सुनूँगा।

उपमन्यु जीवन में बहुत सारे कष्ट सह चुका था वे जब अपने मामा के यहाँ थे तो उन्हें जरा सा दूध दिया जाता था और वे अपने माँ से कहते थे की माँ मुझे गाय का गरम दूध पीना है, थोड़े से मेरा मन नहीं भरता। बालक उपमन्यु जब दूध के लिए लालायित होने लगे तो उनकी तपस्विनी माता के मन में बड़ा दुःख हुआ और उसने अपने बेटे को प्रेमपूर्वक छाती से लगा कर और अपनी निर्धनता का स्मरण करके उपमन्यु की माँ ने उसे भक्तिपूर्वक माता पार्वती और अनुचरों सहित भगवान शिव के चरणों में जाने का आदेश दिया। उपमन्यु अपनी माँ से पंचाक्षर मंत्र का ज्ञान प्राप्त किया और उनकी आज्ञा को ग्रहण करके अपनी आपत्तियों के निवारण हेतु तपस्या के लिए विदा हो गये।

उपमन्यु को तप के दौरान भगवान शिव देवराज इंद्र के भेष में बहुत सारे प्रलोभन दिये, भगवान शिव की निंदा की लेकिन उपमन्यु ने कहा की दूध के लिए जो मेरी इक्षा है वो यों ही रह जाये पर शिव तपस्या को नहीं छोड़ूँगा। बात यहाँ तक आ पहुँची की उपमन्यु अपने तप में बिघ्न समझ कर देवराज इन्द्र के रूप  में भगवान शिव को ही शिवास्त्र के द्वारा वध करने के लिए तैयार हो गये और प्रण लिया की मैं भी अपने इस शरीर को त्याग दूंगा।

उपमन्यु ने तो अघोर अस्त्र से अभिमंत्रित भस्म लेकर इन्द्र के उपर छोड़ भी दिया और अपने शरीर को योगाग्नि में भस्म करने के लिए उद्यत हो गए। तब भगवान शिव ने योगी उपमन्यु की उस आग्नेयी धारणा को अपनी सौम्य दृष्टि से रोक दिया।

फिर परमेश्वर भगवान शिव ने अपने मूल स्वरुप को धारण करके माता पार्वती सहित उपमन्यु को दर्शन दिया और बोले – ‘हे वत्स, आज से तुम अपने भाई बंधुओं के साथ सदा अपनी इक्षानुसार भोज्य पदार्थों का उपभोग करो। दुःख से छूटकर पा कर सदा सुखी रहो, तुम्हें मैं अपनी परम भक्ति प्रदान करता हूँ।

आज से तुम मेरे और पार्वती के पुत्र हो। मैं तुम्हें क्षीरसागर प्रदान करता हूँ। केवल दूध का ही नहीं बल्कि मधु, घी, दही, विभिन्न प्रकार के अन्न एवं फलों के रस का समुद्र भी मैं तुम्हें प्रदान करता हूँ।

तुम्हें कभी इनकी कमी नहीं होगी। मैं सभी प्रकार के भोज्य पदार्थों का समुद्र तुम्हें प्रदान करता हूँ। मैं तुम्हें अमरत्व तथा गणपति के समान सनातन पद प्रदान करता हूँ।

इसके अलावे अगर तुम्हारे मन में कोई और अभिलाषा हो तो वह भी मुझसे मांग लो। मैं आज तुम्हें वह सब प्रदान करूँगा। 

ये सुनकर उपमन्यु ने दोनों हाथ जोड़कर दण्डवत प्रणाम करके भगवान शिव से कहा –

‘हे भक्तवत्सल, मुझे अपनी भक्ति प्रदान कीजिये, मेरा मन सदा आपके चरणों में लगा रहे और मेरे जो अपने सगे संबंधी हैं उनमें सदा मेरी श्रद्धा बनी रहे। हे करुणासिन्धु, आप मुझपर प्रसन्न होइए। 

तब भगवान शिव बोले – ‘हे उपमन्यु, मैं तुमपर अत्यन्त प्रसन्न हूँ। तुम्हारी सब इक्षा पूरी होगी। मेरे प्रति सदा तुम्हारी भक्ति बनी रहेगी’।

यह कहकर भगवान शिव अंतर्ध्यान हो गए। भगवान शिव से अभीष्ट वर पाकर उपमन्यु बहुत प्रसन्न हुए और अपनी माता के पास चले गए।

यहाँ आज कहना चाहूँगा की कोई भी तप इंद्रियों को वश में करने के लिए होता है जो  प्रत्याहार कहलाता है, क्योंकि इंद्रियां ही विषयों में संलग्न होती हैं। सभी इंद्रियों को वश में कर लेना ही परम सुखकारी होता है। यह ही विद्वानों को ज्ञान और वैराग्य प्रदान करता है। अपनी इंद्रियों को वश में कर लेने से आत्मा का उद्धार होता है। अपने हृदय को एकाग्र करना और शिव चरणों में समर्पित कर देना ही सांसारिक बंधनों से मुक्ति प्रदान करता है।

ॐ नमः शिवाय

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