सचेतन 2.38: रामायण कथा: सुन्दरकाण्ड – रावण की हवेली स्त्रियों से प्रकाशित एवं सुशोभित होता था।

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स्वर्ग जैसे भोगावशिष्ट पुण्य इन सुन्दरियों के रूपमें एकत्र थी 

तदनन्तर हनुमान् जी आगे बढ़ने पर एक बहुत बड़ी हवेली देखी, जो बहुत ही सुन्दर और सुखद थी। वह हवेली रावण को बहुत ही प्रिय थी, ठीक वैसे ही जैसे पति को कान्तिमयी सुन्दरी पत्नी अधिक प्रिय होती है। उसमें मणियों की सीढ़ियाँ बनी थीं और सोने की खिड़कियाँ उसकी शोभा बढ़ाती थीं। उसकी फर्श स्फटिक मणि से बनायी गयी थी, जहाँ बीच-बीच में हाथी के दाँत के द्वारा विभिन्न प्रकार की आकृतियाँ
बनी हुई थीं। मोती, हीरे, चाँदी और सोने के द्वारा भी उसमें अनेक प्रकार के आकार अङ्कित किये गये थे।

मणियों के बने हुए बहुत-से खम्भे, जो समान, सीधे, बहुत ही ऊँचे और सब ओर से विभूषित थे, आभूषण की भाँति उस हवेली की शोभा बढ़ा रहे थे। अपने अत्यन्त ऊँचे स्तम्भरूपी पंखों से मानो वह आकाश को उड़ती हुई-सी जान पड़ती थी। उसके भीतर पृथ्वी के वन-पर्वत आदि चिह्नों से अङ्कित एक बहुत बड़ा कालीन बिछा हुआ था।

राष्ट्र और गृह आदि के चित्रों से सुशोभित वह शाला पृथ्वी के समान विस्तीर्ण जान पड़ती थी। वहाँ मतवाले विहङ्गमों के कलरव गूंजते रहते थे तथा वह दिव्य सुगन्ध से सुवासित थी। उस हवेली में बहुमूल्य बिछौने बिछे हुए थे तथा स्वयं राक्षसराज रावण उसमें निवास करता था। वह अगुरु नामक धूप के धूएँ से धूमिल दिखायी देती थी, किंतु वास्तव में हंस के समान श्वेत एवं निर्मल थी।

पत्र-पुष्प के उपहार से वह शाला चितकबरी-सी जान पड़ती थी। अथवा वसिष्ठ मुनि की शबला गौ की भाँति सम्पूर्ण कामनाओं की देने वाली थी। उसकी कान्ति बड़ी ही सुन्दर थी। वह मन को आनन्द देने वाली तथा शोभा को भी सुशोभित करने वाली थी।

वह दिव्य शाला शोक का नाश करने वाली तथा सम्पत्ति की जननी-सी जान पड़ती थी। हनुमान जी ने उसे देखा। उस रावणपालित शाला ने उस समय माता की भाँति शब्द, स्पर्श आदि पाँच विषयों से हनुमान जी की श्रोत्र आदि पाँचों इन्द्रियों को तृप्त कर दिया।उसे देखकर हनुमान जी यह तर्क-वितर्क करने लगे कि सम्भव है, यही स्वर्गलोक या देवलोक हो। यह इन्द्र की पुरी भी हो सकती है अथवा यह परमसिद्धि (ब्रह्मलोक की प्राप्ति) है।

हनुमान जी ने उस शाला में सुवर्णमय दीपकों को एकतार जलते देखा, मानो वे ध्यानमग्न हो रहे हों; ठीक उसी तरह जैसे किसी बड़े जुआरी से जुए में हारे हुए छोटे जुआरी धननाश की चिन्ता के कारण ध्यान में डूबे हुए-से दिखायी देते हैं। दीपकों के प्रकाश, रावण के तेज और आभूषणों की कान्ति से वह सारी हवेली जलती हुई-सी जान पड़ती थी।

तदनन्तर हनुमान जी ने कालीन पर बैठी हुई सहस्रों सुन्दरी स्त्रियाँ देखीं, जो रंग-बिरंगे वस्त्र और पुष्पमाला धारण किये अनेक प्रकार की वेशभूषाओं से विभूषित थीं।आधी रात बीत जानेपर वे क्रीड़ा से उपरत हो मधुपान के मद और निद्रा के वशीभूत हो उस समय गाढ़ी नींद में सो गयी थीं।

उन सोयी हुई सहस्रों नारियों के कटिभाग में अब करधनी की खनखनाहटका शब्द नहीं हो रहा था। हंसों के कलरव तथा भ्रमरों के गुञ्जारव से रहित विशाल कमल-वन के समान उन सुप्त सुन्दरियों का समुदाय बड़ी शोभा पा रहा था।

पवनकुमार हनुमान जी ने उन सुन्दरी युवतियों के मुख देखे, जिनसे कमलों की-सी सुगन्ध फैल रही थी। उनके दाँत ढंके हुए थे और आँखें मूंद गयी थीं। रात्रि के अन्त में खिले हुए कमलों के समान उन सुन्दरियों के जो मुखारविन्द हर्ष से उत्फुल्ल दिखायी देते थे, वे ही फिर रात आने पर सो जाने के कारण मुँदे हुए दलवाले कमलों के समान शोभा पा रहे थे।

उन्हें देखकर श्रीमान् महाकपि हनुमान् यह सम्भावना करने लगे कि ‘मतवाले भ्रमर प्रफुल्ल कमलों के समान इन मुखारविन्दों की प्राप्ति के लिये नित्य ही बारंबार प्रार्थना करते होंगे—उनपर सदा स्थान पाने के लिये तरसते होंगे’; क्योंकि वे गुण की दृष्टि से उन मुखारविन्दों को पानी से उत्पन्न होने वाले कमलों के समान ही समझते थे।

रावण की वह हवेली उन स्त्रियों से प्रकाशित होकर वैसी ही शोभा पा रही थी, जैसे शरत्काल में निर्मल आकाश ताराओं से प्रकाशित एवं सुशोभित होता है।

उन स्त्रियों से घिरा हुआ राक्षसराज रावण ताराओं से घिरे हुए कान्तिमान् नक्षत्रपति चन्द्रमा के समान शोभा पा रहा था। उस समय हनुमान जी को ऐसा मालूम हुआ कि आकाश (स्वर्ग)-से भोगावशिष्ट पुण्य के साथ जो ताराएँ नीचे गिरती हैं, वे सब-की-सब मानो यहाँ इन सुन्दरियों के रूपमें एकत्र हो गयी हैं* ॥ ४२ ॥
* इस श्लोक में ‘अत्युक्ति’ अलंकार है।

अत्युक्ति: संज्ञा, स्त्रीलिंग, साहित्य के अतिशयोक्ति की तरह का एक अर्था लंकार, जिसमें किसी की उदारता, यश, योग्यता, शक्ति आदि उचित से बहुत अधिक)

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