सचेतन 121 : श्री शिव पुराण- शतरुद्र संहिता- मन की स्थिति का अभ्यास करना
भव पर्जन्य (मेघ) का सूचक है
अगर रुद्र समझना हो तो जीवन में हो रहे ऊर्जा के रूपांतरण को समझें! विज्ञान में, ऊर्जा वस्तुओं का एक गुण है, जो अन्य वस्तुओं को स्थानांतरित किया जा सकता है। रुद्र के आठ रूपों का उल्लेख सर्व, भव, भीम, उग्र, ईशान, पशुपति, महादेव, असनी के रूप में किया गया है। सर्व नाम जल को दर्शाता है, उग्र हवा है, असनी बिजली है, भव पर्जन्य (मेघ) है, पशुपति पौधा है, ईशान सूर्य है, महादेव चंद्रमा और प्रजापति हैं। इस संदर्भ से यह समझा जा सकता है कि रुद्र के इन आठ रूपों से ही सारा संसार बना है। और आपके शरीर का विज्ञान भी यही है
सर्व यानी समस्त, आदि से अंत तक, शुरू से आख़िर तक यह पहचान सृष्टीय या वैश्विक या ब्रह्मांडीय यानी सर्वलोक जैसा समझने का है। The supreme or all-pervading spirit। भगवान से हमारा (जीवात्मा का) सम्बन्ध अनादि (जिसका प्रारंभ न हो), अनन्त, और सनातन या नित्य (सदा) है।
आज हम भव जो पर्जन्य (मेघ) का सूचक है के बारे में बात करेंगे।
हमारे जीवन में बदलाव होने की अवस्था, क्रिया या भाव जिससे हमें अपनी सत्ता और सांसारिक अस्तित्व, को जन्म या उत्पत्ति करते हैं और यह आदतन या भावनात्मक प्रवृत्तियाँ मात्र है। यह एक मानसिक घटना के रूप में स्वयं की भावना के उत्पन्न होने की ओर ले जाता है। यह भव या भाव तीन प्रकार के गुण – सात्विक, राजसिक और तामसिक बनाता है। किसी व्यक्ति में किसकी प्रधानता होती है यह उनके स्वयं के स्वभाव पर निर्भर करता है, लेकिन सात्विक भाव दिव्य भाव या शुद्ध भाव (शुद्ध भाव) है। भाव का वर्गीकरण हम बहुत प्रकार से कर सकते हैं जैसे – शांतभाव , शांत, शांतिपूर्ण, सौम्य या साधु रवैया; दास्यभाव , भक्ति का दृष्टिकोण; सख्यभाव , एक दोस्त का रवैया; वात्सल्यभाव , एक माँ का अपने बच्चे के प्रति रवैया; मधुरभाव (या कंतभाव), प्यार में एक महिला का रवैया; तन्मयभाव , यह दृष्टिकोण कि भगवान हर जगह मौजूद हैं।
कहते हैं की “तत्र स्थितौ-यतनाः अभ्यासः” अभ्यास के द्वारा एक दिए गए दृष्टिकोण में स्वयं को ठीक करने का प्रयास करना चाहिए। जब हम धर्म, जन और वैराग्य का अभ्यास और पालन करते हैं तो हमारे पास एक आत्मनिर्भरता, आत्मविश्वास, इच्छा शक्ति और ऊर्जा स्तरों द्वारा प्रस्तुत सकारात्मकता होती है। अभ्यास मनुष्य को पूर्ण बनाता है।
हमारा अभ्यास सर्वोच्च कर्तव्य धर्म करने का होना चाहिए जो अपने आप आपकी एक संतुलित मन की स्थिति में रहना सिखाता है और विश्वास को बढ़ता है।
हम अपने भव या भाव को या यूँ कहें की हमारी भावनात्मक मन की स्थिति को यह अभ्यास करना है की हम घटनाओं और स्वयं के बीच थोड़ी दूरी बना कर चलें। थोड़ी दूरी हमें एक उच्च वास्तविकता के प्रति समर्पण प्रदान करती है, ताकि हम अपने अहंकार से ऊपर हो सकें। हम अपने अहंकार को एक तरफ रख देते हैं, कम प्रतिक्रिया करते हैं और हमारी सोच अहंकार से आगे हो जाती है। आपने जीवन में स्वयं ही बदलाव होने की अवस्था को देख सकते हैं।