सचेतन 2.68: रामायण कथा: सुन्दरकाण्ड – हनुमान जी को संशययुक्त कार्य प्रिय नहीं है
भगवान् श्रीराम के सुन्दर, धर्मानुकूल वचनों को सुना कर हनुमान जी ने सीता जी को विश्वास दिलाया
आज हनुमान जी की जयंती है और हनुमान जी बहुत अच्छे योजना के योजनाकार्ता और मनोहर थे, वे वायु वेग से चलने वाले हैं, इन्द्रियों को वश में करने वाले, बुद्धिमानो में सर्वश्रेष्ठ हैं। हे वायु पुत्र, हे वानर सेनापति, श्री रामदूत हम सभी आपके शरणागत है॥
मनोजवं मारुततुल्यवेगं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठं।
वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्रीरामदूतं शरणं प्रपद्ये॥
कल हमने चर्चा किया था की हनुमान जी बहुत ही संयम से सीता जी से मिलकर उनको सांत्वना यानी ढारस और आश्वासन देने का योजना बना रहे हैं। साथ ही उचित भाषा का चयन करना चाहिए यह भी सीख उन्होंने दिया।
उनके मन में यह भी आ रहा था की मेरी गलती से श्रीरघुनाथजी और सुग्रीव का यह सीता की प्राप्ति रूप अभीष्ट कार्य ही नष्ट हो जायगा। और सीताजी का मनोरथ भी पूरा नहीं होगा। जीवन में मनोरथ यानी किसी शुभ कार्य को पूरा होना, करना या जिसको आप ने मन में संजोये हुए रखा था उसे पाना जिसे हम लक्ष्य कहते हैं यह हर योजना में बहुत आवश्यक है।कभी कभी तो हम किसी होम, हवन, यज्ञ का पूरा होना, या घर में किसी का शादी- विवाह होना, घर बनवाना, किसी धार्मिक स्थल या यात्रा पर जाना, इत्यादि का पूरा होना मनोरथ पूर्ण कहलाएगा!
सीता जी अशोक वाटिका में राक्षसों से घिरि हुए थी। यहाँ आने का मार्ग दूसरों का देखा या जाना हुआ नहीं है तथा लंका प्रदेश तो समुद्र ने चारों ओर से घेर रखा है। ऐसे गुप्त स्थान में जानकी जी निवास करती हैं। हनुमान जी सोचते हैं की यदि राक्षसों ने मुझे संग्राम में मार दिया या पकड़ लिया तो फिर श्रीरघुनाथजी के कार्य को पूर्ण करने के लिये कोई दूसरा सहायक भी मैं नहीं देख रहा हूँ।
बहुत विचार करने पर भी मुझे ऐसा कोई वानर नहीं दिखायी देता है, जो मेरे मारे जाने पर सौ योजन विस्तृत महासागरको लाँघ सके। मैं इच्छानुसार सहस्रों राक्षसों को मार डालने में समर्थ हूँ; परंतु युद्ध में फँस जाने पर महासागर के उस पार नहीं जा सकूँगा।
युद्ध अनिश्चयात्मक होता है (उसमें किस पक्ष की विजय होगी, यह निश्चित नहीं रहता) और मुझे संशययुक्त कार्य प्रिय नहीं है। कौन ऐसा बुद्धिमान् होगा, जो संशयरहित कार्य को संशययुक्त बनाना चाहेगा। सीताजी से बातचीत करने में मुझे यही महान् दोष प्रतीत होता है और यदि बातचीत नहीं करता हूँ तो विदेह नंदिनी सीता का प्राणत्याग भी निश्चित ही है।
संशययुक्त, यानी जो दुबधा में पड़ा हुआ हो, वह स्वयं में और दूसरों के लिए भी संदिग्ध माँ पड़ता हो। कभी कभी जो कार्य अनिश्चित, आपत्तिग्रस्त, या खतरे वाला हो वह भी संशययुक्त होता है। संशययुक्त मनुष्य का यह लोक और परलोक दोनों बिगड़ जाता है। संशययुक्त मनुष्य दुविधा में रहने के कारण कोई एक निश्चय नहीं कर पाता। जैसे — जप करूँ या स्वाध्याय करूँ ? संसार का काम करूँ या भजन करूँ ? इस मार्ग जाऊँ कि उस मार्ग जाऊँ ? आदि-आदि।
विवेकहीन, श्रद्धारहित और संशययुक्त मनुष्य परमार्थ से भटक जाता है। ऐसे संशययुक्त मनुष्य के लिए न इस लोक में न ही परलोक में सुख है।
हनुमान जी ने सोचा की अविवेकी या असावधान दूत के हाथ में पड़ने पर बने-बनाये काम भी देश-काल के विरोधी होकर उसी प्रकार असफल हो जाते हैं, जैसे सूर्य के उदय होने पर सब ओर फैले हुए अन्धकार का कोई वश नहीं चलता, वह निष्फल हो जाता है।
कर्तव्य और अकर्तव्य के विषय में स्वामी की निश्चित बुद्धि भी अविवेकी दूत के कारण शोभा नहीं पाती है; क्योंकि अपने को बड़ा बुद्धिमान् या पण्डित समझनेवाले दूत अपनी ही नासमझी से कार्य को नष्ट कर डालते हैं।
फिर किस प्रकार यह काम न बिगड़े, किस तरह मुझसे कोई असावधानी न हो, किस प्रकार मेरा समुद्र लाँघना व्यर्थ न हो जाय और किस तरह सीताजी मेरी सारी बातें सुन लें, किंतु घबराहट में न पड़े -इन सब बातों पर विचार करके बुद्धिमान् हनुमान् जी ने यह निश्चय किया। जिनका चित्त अपने जीवन-बन्धु श्रीराम में ही लगा है, उन सीताजी को मैं उनके प्रियतम श्रीराम का जो अनायास ही महान् कर्म करनेवाले हैं, गुण गा-गाकर सुनाऊँगा और उन्हें उद्विग्न नहीं होने दूंगा।
मैं इक्ष्वाकु कुलभूषण विदितात्मा भगवान् श्री राम के सुन्दर, धर्मानुकूल वचनों को सुनाता हुआ यहीं बैठा रहूँगा। मीठी वाणी बोलकर श्रीराम के सारे संदेशों को इस प्रकार सुनाऊँगा, जिससे सीता का उन वचनों पर विश्वास हो। जिस तरह उनके मन का संदेह दूर हो, उसी तरह मैं सब बातों का समाधान करूँगा।
इस प्रकार भाँति-भाँति से विचार करके अशोकवृक्ष की शाखाओं में छिपकर बैठे हुए महाप्रभावशाली हनुमान जी पृथ्वीपति श्रीरामचन्द्रजी की भार्या की ओर देखते हुए मधुर एवं यथार्थ बात कहने लगे।