सचेतन 185: मैं कौन हूँ?
परमात्मा कहाँ मिलेंगे?
कल मुझसे एक मित्र ने पूछा की परमात्मा कहाँ हैं और कौन हैं? आपने सचेतन के दौरान बोला था कि परमात्मा उधारी में भरोसा नहीं करता तो परमात्मा को कैसे हम देख पायेंगे।
आज से हम सचेतन में परमात्मा की खोज पर चर्चा करेंगे।
आज सबसे पहले बात करते हैं की “मैं कौन हूँ?” इसका कोई उत्तर नहीं है; यह उत्तर के पार है। तुम्हारा मन बहुत सारे उत्तर देगा। तुम्हारा मन कहेगा, तुम जीवन का सार हो। तुम अनंत आत्मा हो। तुम दिव्य हो,’ और इसी तरह के बहुत सारे उत्तर। इन सभी उत्तरों को अस्वीकृत कर देना है : नेति नेति–तुम्हें कहे जाना है, “न तो यह, न ही वह।”
जब तुम उन सभी संभव उत्तरों को नकार देते हो, जो मन देता है, सोचता है, जब प्रश्न पूरी तरह से बिना उत्तर के बच जाता है, चमत्कार घटता है। अचानक प्रश्न भी गिर जाता है। जब सभी उत्तर अस्वीकृत हो जाते हैं, प्रश्न को कोई सहारा नहीं बचता, खड़े होने के लिए भीतर कोई सहारा नहीं बचता। यह एकाएक गिर पड़ता है, यह समाप्त हो जाता है, यह विदा हो जाता है।
एक छोटी सी कहानी से परमात्मा की खोज पर चर्चाओं को शुरू करना चाहूंगा।
एक व्यक्ति बहुत विस्मरणशील था। छोटी-छोटी बातें भी भूल जाता था। बड़ी कठिनाई थी उसके जीवन में, कुछ भी स्मरण रखना उसे कठिन था। रात वह सोने को जाता तो अपने कपड़े उतारने में भी उसे कठिनाई होती, क्योंकि सुबह उसने टोपी कहां पहन रखी थी और चश्मा कहां लगा रखा था और कोट किस भांति पहन रखा था वह भी सुबह तक भूल जाता था। तो करीब-करीब कपड़े पहन कर ही सो जाता था ताकि सुबह फिर से स्मृति को कष्ट देने की जरूरत न पड़े। पास में ही एक चर्च था और चर्च के पुरोहित ने जब उसके विस्मरण की यह बात सुनी तो बहुत हैरान हुआ। और एक रविवार की सुबह जब वह आदमी चर्च आया तो उसे कहा कि एक किताब पर लिख रखो कि कौन सा कपड़ा कहां पहन रखा था, किस भांति पहन रखा था ताकि तुम रात में कपड़े उतार सको और सुबह उस किताब के आधार पर उन्हें वापस पहन सको। उस रात उसने कपड़े उतार दिए और किसी किताब पर सब लिख लिया।
सुबह उठा और सब तो ठीक था। टोपी सिर पर पहननी है यह भी लिखा था। कोट कहां पहनना है यह भी लिखा था। कौन सा मोजा किस पैर में पहनना है यह भी लिखा था, कौन सा जूता किस पैर में डालना है यह भी लिखा था। लेकिन वह यह लिखना भूल गया कि खुद कहां है और तब बहुत परेशान हुआ। सब चीजें तो ठीक थीं, और सब चीजें कहां पहननी हैं यह भी ज्ञात था लेकिन मैं कहां हूं, यह वह रात लिखना भूल गया था। वह सुबह मुंह अंधेरे ही पादरी के घर पहुंच गया। नग्न था बिलकुल, पादरी भी देख कर घबड़ा गया और पहचान न पाया। हमारी सारी पहचान तो वस्त्रों की है। नग्न व्यक्ति को देख कर शायद हम भी न पहचान पाएं कि वह कौन है।
पादरी बहुत हैरान हुआ, उसने पूछा, आप कौन हैं और कैसे आए? उस व्यक्ति ने कहाः यही तो पूछने मैं भी आया हूँ कि मै कौन हूँ और कहां हूँ? क्योंकि बाकी सारे वस्त्र तो ठीक हैं लेकिन रात में यह लिखना भूल गया-अपने बाबत लिखना भूल गया। पता नहीं उस धर्म-पुरोहित ने क्या उसे कहा। उससे कोई संबंध भी नहीं। लेकिन इस कहानी से मैं इसलिए चर्चाओं को शुरू करना चाहता हूं, क्योंकि करीब-करीब इसी हालत में हम सारे लोग हैं। हमें ज्ञात हैं बहुत सी बातें, जीवन का सब कुछ ज्ञात है सिर्फ एक तथ्य को छोड़ कर कि हम कहां हैं और कौन हैं? मैं कौन हूं? इसका हमें कोई भी स्मरण नहीं है। और उस व्यक्ति के साथ बात तो ठीक भी थी, क्योंकि वह और सब बातें भी भूल जाता था इसलिए यह बहुत स्वाभाविक मालूम होता है कि अपने को भी भूल जाए। लेकिन हमारे साथ बड़ी मुश्किल है। हमें और सब बातें तो याद हैं, यह हमें याद नहीं कि हम कौन हैं और कहां है? इसलिए उस पर हंसना उतना उचित नहीं है जितना अपने पर हंसना उचित होगा। विस्मरण उसकी आदत थी। विस्मरण हमारी आदत नहीं है और सब कुछ हमें स्मरण है। सिर्फ एक बात स्मरण नहीं है।