सचेतन 2.14: रामायण कथा: सुन्दरकाण्ड – वसुधैव कुटुंबकम का एकमात्र कल्याण की आकांक्षा रखें
क्षीर सागर और मैनाक पर्वत अपना सनातन धर्म समझकर हनुमान जी को विश्राम करने की पेशकश की
समुद्र की आज्ञा पाकर जल में छिपे उस विशालकाय पर्वत मैनाक ने दो ही घड़ी में हनुमान्जी को अपने शिखरों का दर्शन कराया। उस पर्वत के शिखर सुवर्ण मय थे और उन पर किन्नर और बड़े-बड़े नाग निवास करते थे। सूर्योदय के समान तेज पुंज से विभूषित ये शिखर इतने ऊंचे थे कि आकाश में रेखा सी खींच जैसी लग रही थी। उस पर्वत के उठे हुए सुवर्णमय शिखरो के कारण शास्त्र के समान नील वर्णमाला आकाश सुनहरी प्रभा से उद्यसित होने लगा। उन परम कांतिमान और तेजस्वी सुवर्णमय शिखरो से वह गिरीश्रेष्ठ मेनाक सैकड़ो सूर्य के सामान देदीप्यमान हो रहा था।
जब हम नील वर्णमाला कहते हैं तो प्रायः हम भगवान कृष्ण के सृजन और शृंगार के रूप को अनुभव करते हैं जो प्रेम, समर्पण और वीरता का द्योतक माना जाता है।
क्षीर समुद्र के बीच में अभिलंब उठकर सामने खड़े हुए मैनाक को देखकर हनुमान जी ने मन ही मन निश्चित किया कि यह कोई विघ्न उपस्थित हुआ है। हम सभी कभी कभी आकर्षण को देखकर यह सोचते हैं की कोई ना कोई चाल तो नहीं है और हनुमान जी ने भी ऐसा ही सोचा।
फिर हनुमान जी ने बल से वायु जैसे बादल को छिन्न-भिन्न कर देती है, इसी प्रकार महान वेगशाली महाकपि हनुमान ने बहुत ऊंचे उठे हुए मैंनाक पर्वत के उच्चतर शिखर को अपनी छाती के धक्के से नीचे गिरा दिया। इस प्रकार कपिवर हनुमान जी के द्वारा नीचे देखने पर उनके इस महान वेग का अनुभव करके पर्वत श्रेष्ठ मैनाक बड़ा प्रसन्न हुआ और गर्जना करने लगा।
यहाँ क्षीर सागर और मैनाक पर्वत धर्म समझकर उस हनुमान जी को विश्राम करने की पेशकश कर परम कल्याण की बात कर रहा है। हम सभी अगर एक दूसरे के लिए एकमात्र कल्याण की आकांक्षा रखें तो वाक़य यह विश्व सच में वसुधैव कुटुंबकम यानी दुनिया एक परिवार है वैसा ही प्रतीत होगा। हनुमान जी ने श्रेष्ठ मैनाक पर्वत को छाती के धक्के से नीचे गिरा दिया ऐसा क्यों किया।
यह रामायण कथा को आप चमत्कार मत समझिए यह कथा एक आम मानव कि कथा है हम सभी की कथा है। मानव बुद्धि या समझ या जैसे किसी मानव की प्रकृति होती है वैसे ही हनुमान जी भी थे। वैसे जब हम किसी काम में मग्न होते हैं और उस समय आगे बढ़ जाता है तो हम उसे हटाना चाहते हैं और हम उस काम में कोई परेशानी या विघ्न नहीं चाहते हैं। और हनुमान जी ने भी ऐसा ही किया।
मानव बुद्धि या समझ किसी जिज्ञासा के लिए होता है कोई चीज आपको लुभाने लगे और आप उस पर विश्वास कर लेते हैं तो समझिए की यह आप पर थोपा जा रहा है। इसीलिए भीतर की जिज्ञासा किसी लुभावने विश्वास पर खत्म मत कीजिए।
तब आकाश में स्थित हुए उस मैनाक पर्वत ने आकाश गत वीर वानर हनुमान जी से प्रसंचित्त होकर और मनुष्य रूप धारण करके अपने ही शिखर पर स्थित हो इस प्रकार बोला – यहाँ हम पर्वत में भी मानवीय गुण और प्राण के मूलबूत तत्व को समझें।
हे वानरशिरोमणि आपने यह दुष्कर कर्म किया है। आप उतर कर मेरे इन शिखरो पर सुख पूर्वक विश्राम कर लीजिए फिर आगे की यात्रा कीजिएगा श्री रघुनाथ जी के पूर्वजों ने समुद्र की वृद्धि की थी, इस समय आप उनके हित करने में लगे हैं। अतः समुद्र आपका सत्कार करना चाहता है किसी ने उपकार किया हो तो बदले में उसका भी उपकार किया जाए यह सनातन धर्म है।
यहाँ जिज्ञासा को बढ़ाया जा रहा है लुभावना नहीं दी जा रही है।
यहाँ कोई थोपे गये विश्वास की बातचीत नहीं है और कोई अपराधबोध भी नहीं है। यहाँ एक दूसरे के परम कल्याण के लिए मैनाक पर्वत और हनुमान जी के बीच जिज्ञासा का एक गहन भाव लाया जा रहा है की आप यहाँ थोड़ा विश्राम कर लीजिए जिससे की आपके श्री रघुनाथ जी के पूर्वजों के द्वारा जो समुद्र के लिए उपकार किया गया था की उनकी वृद्धि की थी, और आप इस समय आप उनके दूत बन का उनका हित करने में लगे हैं इसीलिए यह समुद्र आपका सत्कार करना चाहता है। यानी पहले जो किसी ने उपकार किया था तो उसके बदले में उसका भी उपकार किया जाए यह सनातन धर्म है।यह जीवन में जिज्ञासा का एक गहन भाव है और आपके अंदर कोई उत्सुकता, या प्रबल इच्छा जगाना ही सनातन धर्म का असली प्रयोजन है।