सचेतन 186: वस्त्र, धन, पदवी, पद, सामाजिक प्रतिष्ठा, अहंकार, उपाधि हमारे प्राण या आत्मा नहीं हैं
अपने को खोकर अगर सारी दुनियां भी पाई जा सके तो उसका कोई मूल्य नहीं है।
हम सचेतन में परमात्मा की खोज पर चर्चा को प्रारंभ किया है।
कल सबसे पहले “मैं कौन हूँ?” प्रश्न आपके समक्ष रखा था। और यह उत्तर के पार है। जब आप सभी उत्तरों को अस्वीकृत कर कर देंगे, जब आप उन सभी संभव उत्तरों को नकार देंगे और जब प्रश्न पूरी तरह से बिना उत्तर के बच जाएगा तो एक चमत्कार आपके ज़िंदगी में घटेगा और वह चमत्कार आपकी शून्यता आपके आनंद की प्रकाष्ठ पर होगी जहां जब सभी उत्तर अस्वीकृत हो जाएँगे।
परमात्मा की खोज पर एक विस्मरणशील व्यक्ति की छोटी सी कहानी आपसे कही थी। जब वह व्यक्ति चर्च के पुरोहित के कथानुसार अपने हर कार्य को एक किताब पर लिख कर रखा और सुबह उठा और सब तो ठीक था। टोपी सिर पर पहननी है यह भी लिखा था। कोट कहां पहनना है यह भी लिखा था। कौन सा मोजा किस पैर में पहनना है यह भी लिखा था, कौन सा जूता किस पैर में डालना है यह भी लिखा था। लेकिन वह यह लिखना भूल गया कि खुद कहां है और तब वह बहुत परेशान हुआ। सब चीजें तो ठीक थीं, और सब चीजें कहां पहननी हैं यह भी ज्ञात था लेकिन मैं कहां हूं, यह वह रात लिखना भूल गया था। वह सुबह जब पादरी के घर नग्न पहुंच गया और पादरी भी देख कर घबड़ा गया और पहचान न पाया। हमारी सारी पहचान तो वस्त्रों की है। नग्न व्यक्ति को देख कर शायद हम भी न पहचान पाएं कि वह कौन है।
इस कहानी की चर्चा इसलिए किया की करीब-करीब हमसभी इसी हालत में हैं। हमें ज्ञात हैं बहुत सी बातें, जीवन का सब कुछ ज्ञात है सिर्फ एक तथ्य को छोड़ कर कि हम कहां हैं और कौन हैं? मैं कौन हूं? इसका हमें कोई भी स्मरण नहीं है।
यह बहुत स्वाभाविक मालूम होता है कि हम सभी अपने को भी भूल गये हैं।हम अपने जीवन में स्वयं को भूल कर और सब कुछ याद रखते हैं। हमारे मन में, सोच में और आसपास भी वह सब कुछ याद है दिख रहा है जो दूसरे हम से चाहते हैं लेकिन हम ख़ुद से क्या चाहते हैं उस बात की खोज खबर जैसी सिर्फ एक बात है जो स्मरण नहीं है।
इसलिए हम कपड़े भी ठीक से पहन लेते हैं और जूते भी, और घर भी ठीक से बसा लेते हैं, लेकिन जीवन हमारा ठीक नहीं हो पाता है। जीवन हमारा ठीक होगा भी नहीं। जो केंद्रीय है जीवन में उसकी हमें कोई स्मृति नहीं। और मैने कहा कि नग्न जब वह धर्म-पुरोहित के द्वार पर खड़ा हो गया। तो धर्म पुरोहित भी पहचान नहीं पाया कि वह कौन है क्योंकि हम सभी एक दूसरे को वस्त्रों से ही पहचानते हैं।
यहां हम इतने लोग आए हैं अगर निर्वस्त्र आ जाएं तो कोई किसी को पहचान भी नहीं सकेगा कि कौन कौन है? लेकिन यह तो ठीक भी है कि हम दूसरों को वस्त्रों से पहचानें। बड़े मजे और आश्चर्य की बात तो यह है कि हम अपने को भी अपने वस्त्रों से पहचानते हैं।
अपनी आत्मा का तो हमें कोई स्मरण नहीं, अपने स्वरूप का तो हमें तो कोई बोध नहीं, तो अपने वस्त्रों और बहुत प्रकार के वस्त्र हैं। वस्त्र हम जो पहने हुए हैं वे धन के, पदवियों के, पदों के, सामाजिक प्रतिष्ठा के, अहंकार के, उपाधियों के, वे सारे वस्त्र हैं और उनसे ही हम अपने को भी पहचानते हैं?
वस्त्रों से जो अपने को पहचानता है उसका जीवन यदि अंधकारपूर्ण हो जाए, यदि उसका जीवन दुख से भर जाए, पीड़ा और विपन्नता से, तो आश्चर्य नही है क्योंकि वस्त्र हमारे प्राण नहीं हैं, और वस्त्र हमारी आत्मा नहीं हैं। लेकिन हम अपने को अपने वस्त्रों से ही जानते हैं। उससे गहरी हमारी कोई पहुंच नहीं है।
सचेतन का अर्थ तब आपको साकार दिखेगा जब हम विचारों के आदान प्रदान से इन वस्त्रों के बाहर जो हमारा होना है उस तरफ, उस दिशा में कुछ बातें आप ख़ुद से करना शुरु किजीये। अगर हम सभी इन वस्त्र, धन, पदवी, पद, सामाजिक प्रतिष्ठा, अहंकार, उपाधि में लगे रहेंगे तो आपको मैं यह स्मरण दिलाना चाहूंगा कि आप अपने जीवन को गवां रहे हैं और केवल वस्त्रों में अपने आपको पहचान पा रहे हैं।
अपने को खोकर अगर सारी दुनियां भी पाई जा सके तो उसका कोई मूल्य नहीं है।