सचेतन 239: शिवपुराण- वायवीय संहिता – संसार का मूल प्रकृति शून्यता है
अनुभव करें की सारा विश्वात्मक विस्तार मैं ही हूँ
जब हम ‘शिव’ कहते हैं तो इसका अर्थ है शून्य, यानी ‘शिव’ का शाब्दिक अर्थ है- ‘जो नहीं है’। एक बार अपने शून्य होने की सहनशीलता को सक्षम करके देखिए आपको लगेगा की आपका हरेक कर्म इस सृष्टि में शून्यता से ही प्रारंभ होता है।
आपका शून्य होना ही आपका प्राकृतिक गुण है क्योंकि आप तभी ही स्वयं को समझ सकने में सक्षम होते हैं। शिवलिंग आपका वह गुण जो आपको संतुलन देता है। एक स्थिर गति की स्थिति आपके अंदर लाता है की आप परेशान होने पर भी शिव यानी शून्यता की ऐसी ताकत या एक ऐसा क्षण विकसित कर पाने में कुशल हो जाते हैं और यह शून्यता या स्थिर होने का भाव, एक ठहराव, दृढ़ता, आपकी मजबूती और स्थायित्व को बना कर रखती है जिसके कारण ही आप अपनी मूल स्थिति को बहाल करते हैं और जीवन में फिर से चल पड़ते हैं।शिव ही वो गर्भ हैं जिसमें से सब कुछ जन्म लेता है, और वे ही वो गुमनामी हैं, जिनमें सब कुछ फिर से समा जाता है। सब कुछ शिव से आता है, और फिर से शिव में चला जाता है। सारा संसार लिंग का ही रूप है यानी एक प्रतीकात्मक चिह्न है इसलिए इसकी प्रतिष्ठा से सबकी प्रतिष्ठा हो जाती है।
आप सच मानिए तो इस ब्रह्मांड में ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र कोई भी अपने पद पर स्थिर नहीं रह सकते। क्योंकि यह लिंग यानी आपकी पहचान जब तक है तब तक आपके अंदर तीन गुण हमेशा उत्पन्न होते रहेंगे और आपके आप इक्षा ज्ञान और क्रियात्मक शक्ति बनी रहेगी और आपके जीवन में हर एक सक्रियता या निस्क्रियता या फिर हम कहें की आप हर एक चीज में उसका आदि और अंत दोनों ढूँढ़ते रहेंगे। आप कभी भी शून्यता को प्राप्त ही नहीं कर पायेंगे और शिव को जीव बना कर घूमते रहेंगे।
वैसे तो इस इस संसार का मूल प्रकृति शून्यता है और इसी से चर-अचर जगत की उत्पत्ति हुई है। फिर भी हर चीज में हम कहते हैं की यह शुद्ध है यह अशुद्ध है लेकिन इन दोनों के बीच भी शुद्धाशुद्ध तो कुछ होगा। आपको शून्यता ढूँढना है तो आपका शून्य होना ही यानी अपने प्राकृतिक गुण में वापस आना ज़रूरी है। जब आप शून्य होने की कोशिश करेंगे तो आपको अनुभाव होगा की सारा विश्वात्मक विस्तार मैं ही हूँ यानी आप खुद एक ऐसी विद्या या ज्ञान या फिर कजें की सोच का विकास करेंगे जिसमें आपके भीतर जो विरोधाभास है यानी एक ऐसी शक्ति जो आपको शून्यता को समझने या देखने या फिर वैसे सोच को विकसित करने में अंतर्हित या आपको रोकती है आपको अदृश्य यानी तिरोहित कर देती है। यह विरोधनी विद्या से दूर होना होगा। संकोच वाली वृत्ति से दूर होना होगा। अपनी अतृप्त होने या रहने की संकुचित राग को छोड़ना होगा।