सचेतन- 09: शेष – हमारी चेतना अनंत है, परंतु अनुभव सीमित

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सचेतन- 09: शेष – हमारी चेतना अनंत है, परंतु अनुभव सीमित

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“शेष – जो बचा रह गया”

नमस्कार दोस्तों,
हम एक गहरे, बहुत ही सूक्ष्म विषय की बात पर पिछले दिनों चर्चा जारी किए थे — “शेष”, यानी वह जो बचा रह जाता है। वह जो हमारी सोच से परे है, अनुभव से बाहर, पर फिर भी हमारे भीतर है। हमारी यात्रा एक प्राचीन वैदिक श्लोक से शुरू होती है, पुरुषसूक्त से —

“सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात्।
स भूमिं विश्वतो वृत्वा अत्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम्॥”

वह विराट पुरुष, जो सहस्रों सिर, नेत्र और चरणों वाला है,
जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को आवृत्त कर लेता है,
फिर भी दश अंगुल — दस अंगुल — उससे आगे विस्तृत है।

हमारी चेतना अनंत है, परंतु अनुभव सीमित। चाहे हम सहस्रों विचार करें, सहस्रों दिशाओं में कल्पना फैलाएं, फिर भी कुछ ऐसा है जो पकड़ से बाहर है — वही “शेष” है। पुरुषसूक्त के दशाङ्गुलम् की भांति, वह शेष ईश्वर का, आत्मा का, या पूर्णता का प्रतीक है। हम उसी शेष की खोज करते हैं — जो हमारी सोच से परे, पर अनुभव के बहुत करीब है।

यह वाक्य गहरा और दार्शनिक है:
“हमारी चेतना अनंत है, परंतु अनुभव सीमित।”

इसका सरल और विस्तृत अर्थ कुछ इस प्रकार हो सकता है:

चेतना (consciousness) वह शक्ति है जो हमें सोचने, समझने, अनुभव करने और आत्मबोध कराने की क्षमता देती है। यह अनंत है — क्योंकि उसमें संभावनाओं, कल्पनाओं और ज्ञान की कोई सीमा नहीं है।
लेकिन अनुभव (experience) सीमित होते हैं — क्योंकि वे समय, स्थान, शरीर, मन और परिस्थिति से बंधे होते हैं। हम जितना भी जानना चाहें, हमारी इंद्रियाँ और मन उतना ही ग्रहण कर पाते हैं, जितना उन्हें संभव है।

उदाहरण: जैसे एक समुद्र अनंत है, लेकिन एक पात्र में उतना ही पानी आएगा जितना वह धारण कर सकता है।

बहुत सुंदर विचार है — यह उपमा चेतना और अनुभव की सीमा को सरलता से समझा देती है।

आइए इसे थोड़ा भावात्मक और गहराई से प्रस्तुत करें:

“समुद्र अनंत है, पर पात्र सीमित।
जितना समा सके, उतना ही पाता है।
वैसे ही, चेतना अनंत है —
परंतु अनुभव की हद,
मन, शरीर और समय से बंधी होती है।”

🌿 अनुभव की सीमाएँ

अनुभव वह पुल है, जो चेतना को वास्तविकता से जोड़ता है।
पर यह अनुभव पूर्ण नहीं, सीमित होता है, क्योंकि—

  • मन की सीमाएँ हैं: वह बार-बार भटकता है, स्थिर नहीं रह पाता।
  • शरीर की सीमाएँ हैं: इंद्रियाँ जितना दिखा-सुना-सुंघा-चखा-छू सकती हैं, अनुभव वहीं तक सीमित है।
  • समय की सीमा है: हम एक क्षण में केवल एक अनुभव कर सकते हैं — न अतीत को फिर से जी सकते हैं, न भविष्य को पहले।

इसलिए, अनुभव सीमित है, पर चेतना असीम।
जितना गहरा मन, जितनी निर्मलता — उतना व्यापक अनुभव।

हर व्यक्ति चेतना का एक जलकण है —
उस महासागर से जुड़ा, पर अपनी सीमाओं में बंधा।
अनुभव पात्र है, चेतना जल।
जितनी तैयारी, उतनी धारा।
जितना खुले मन, उतना विस्तार।

बहुत ही गूढ़ और सुंदर विचार है:

“अनुभव वह पुल है, जो चेतना को वास्तविकता से जोड़ता है।”

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