सत्य की महिमा

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कल्याण की भावना को हृदय में बसाकर ही व्यक्ति सत्य बोल सकता है

सत्य ही परब्रह्म है, सत्य ही परम तप है, सत्य ही श्रेष्ठ यज्ञ है और सत्य ही उत्कृष्ट शास्त्रज्ञान है। सोये हुए पुरुषों में सत्य ही जागता है, सत्य ही परमपद है, सत्य से ही पृथ्वी टिकी हुई है और सत्य में ही सब कुछ प्रतिष्ठित हैं। तप, यज्ञ, पुण्य, देवता, ऋषि और पितरों की पूजन, जल और विद्या-ये सब सत्य पर ही अवलम्बित हैं। सबका आधार सत्य ही है। 

सत्य ही यज्ञ, तप, दान, मन्त्र, सरस्वतीदेवी तथा ब्रह्मचर्य है। ओंकार भी सत्यरूप ही है। सत्य से ही वायु चलती है, सत्य से ही सूर्य तपता है, सत्य से ही आग जलाती है और सत्य से ही स्वर्ग टिका हुआ है लोक में सम्पूर्ण वेदों का पालन तथा सम्पूर्ण तीर्थ का स्नान केवल सत्य से सुलभ सत्य से सब कुछ प्राप्त होता है, इसमें संशय नहीं है। 

एक सहस्त्र अश्वमेध और लाखों यज्ञ एक ओर तराजूपर रखे जायेँ और दूसरी ओर सत्य हो तो सत्यका ही पलड़ा भारी होगा। देवता, पितर, मनुष्य, नाग, राक्षस तथा चराचर प्राणियों सहित समस्त हो जाता है।

लोक सत्य से ही प्रसन्न होते हैं। सत्य को परम धर्म कहा गया है सत्य को ही परमपद बताया गया है और सत्यको ही परब्रह्म परमात्मा कहते हैं। इसलिये सदा सत्य बोलना चाहिये। सत्यपरायण मुनि अत्यन्त दुष्कर तप करके स्वर्ग को प्राप्त हुए हैं तथा सत्य धर्म में अनुरक्त रहने वाले सिद्ध पुरुष भी सत्य से ही स्वर्ग के निवासी हुए हैं। अत: सदा सत्य बोलना चाहिये। सत्य से बढ़कर दूसरा कोई धर्म नहीं है। सत्य रूपी तीर्थ अगाध, विशाल, सिद्ध एवं पवित्र जलाशय है। उसमें योगयुक्त होकर मनके द्वारा स्नान करना चाहिये।

सत्य को परमपद कहा गया है। जो मनुष्य अपने लिये, दूसरेके लिये अथवा अपने बेटे के लिये भी झूठ नहीं बोलते वे ही स्वर्गगामी होते हैं। वेद, यज्ञ तथा मन्त्र-ये ब्राह्मणों में सदा निवास करते हैं; परंतु असत्यवादी ब्राह्मणों में इनकी प्रतीति नहीं होती। अत: सदा सत्य बोलना चाहिये। 

सत्य इस संसार में बड़ी शक्ति है. सत्य के बारे में व्यवहारिक बात यह है कि सत्य परेशान हो सकता है किन्तु पराजित नहीं।भारत में कई सत्यवादी विभूतियाँ हुईं जिनकी दुहाई आज भी दी जाती हैं जैसे राजा हरिश्चन्द्र, सत्यवीर तेजाजी महाराज आदि। इन्होने अपने जीवन में यह संकल्प कर लिया था कि भले ही जो कुछ हो जाए वे सत्य की राह को नहीं छोड़ेंगे।

सत्य का शाब्दिक अर्थ होता है सते हितम् यानि सभी का कल्याण। इस कल्याण की भावना को हृदय में बसाकर ही व्यक्ति सत्य बोल सकता है. एक सत्यवादी व्यक्ति की पहचान यह है कि वह वर्तमान, भत अथवा भविष्य के विषय में विचार किये बिना अपनी बात पर दृढ़ रहता है. मानव स्वभाव में सत्य के प्रति आगाध श्रद्धा एवं झूठ के प्रति घृणा वो के भाव आते हैं।

न्याय दर्शन में प्रमुख रूप में प्रत्येक निर्णय और अनुमान पर विचार होता है। इनमें निर्णय का स्थान केंद्रीय है। निर्णय का शाब्दिक प्रकाशन वाक्य है। जब हम किसी वाक्य को सुनते हैं, तो उसे स्वीकार करते हैं या अस्वीकार करते हैं; स्वीकार और अस्वीकार में निश्चय न कर सकने की अवस्था संदेह कहलाती है। प्रत्येक निर्णय सत्य होने का दावा करता है। जब हम इसे स्वीकार करते हैं तो इसके दावे को सत्य मानते हैं; अस्वीकार करने में उसे असत्य कहते हैं। विश्वास हमारी साधारण मानसिक अवस्था है। जब किसी विश्वास में त्रुटि दिखाई देती है, तो इस स्थान पर किसी अन्य विश्वास तक जाने की मानसिक क्रिया ही चिंतन है। विश्वास, सत्य हो अथवा असत्य, क्रिया का आधार है, यही जीवन में इसे महत्वपूर्ण बनाता है। न्याय का काम निर्णय या वाक्य के सत्यासत्य की जाँच करना है; इसके लिए यह बात असंगत है कि कोई इसे वास्तव में सत्य मानता है या नहीं।

सत्य के संबंध में दो प्रश्न विचार के योग्य हैं – किसी निर्णय या वाक्य को सत्य कहने में हमारा अभिप्राय क्या होता है।

सत्य और असत्य में भेद करने का मापक साधन क्या है? हमारे ज्ञान के विषयों में प्रमुख ये हैं – हमारी अपनी चेतना अवस्थाएँ, प्राकृतिक पदार्थ, तथा चेतना के अन्य केंद्र, या दूसरों के मन।

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