सचेतन :73 श्री शिव पुराण- शिव की भक्ति से दरिद्रता, रोग, दुख तथा शत्रु द्वारा दी गई पीड़ा का नाश होता है।

#RudraSamhita   https://sachetan.org/

ब्रह्माजी ने कहा ;- भगवान शिव की भक्ति सुखमय, निर्मल एवं सनातन रूप है तथा समस्त मनोवांछित फलों को देने वाली है। यह दरिद्रता, रोग, दुख तथा शत्रु द्वारा दी गई पीड़ा का नाश करने वाली है। जब तक मनुष्य भगवान शिव का पूजन नहीं करता और उनकी शरण में नहीं जाता, तब तक ही उसे दरिद्रता, दुख, रोग और शत्रु जनित पीड़ा, ये चारों प्रकार के पाप दुखी करते हैं। 

आर्थिक चिन्तन में दरिद्रता चक्र (cycle of poverty) उस स्थिति को कहते हैं जिसमें एक बार गरीबी (दरिद्रता) की स्थिति आने के बाद वह सदा के लिये बनी रहे, यदि कोई बाहरी हस्तक्षेप न किया जाय।कोई व्यक्ति या कोई क्षेत्र जब कभी गरीबी से पीड़ित हो जाता है तो उसकी इस स्थिति के कारण उसे (दूसरों की तुलना में) कुछ हानियाँ झेलनी पड़तीं है; इन हानियों के कारण वे गरीबी की दशा से बाहर नहींं निकल पाते। गरीब देशों की इस स्थिति को विकास जाल (development trap) कहा जाता है।

दरिद्रता चक्र एक प्रकार का दुष्चक्र है जिसमें धनात्मक फीडबैक काम करता है। उदाहरण के लिये, जो गरीब है उसके अशिक्षित रहने की अधिक सम्भावना है; फिर जो अशिक्षित है उसको अच्छी जीविका (रोजगार) नहीं मिल सकता – अत: गरीबी बनी रहेगी।

दुख एक ऐसी है अवस्था जिससे छुटकारा पाने की इच्छा प्राणियों में स्वाभाविक हो । कष्ट, ,क्लेश, सुख का विपरीत भाव, तकलीफ। विशेष— सांख्याशास्त्र के अनुसार दुःख तीन प्रकार के माने गए हैं— आध्यात्मिक, आधिभौतिक और अघिदैविक । अध्यात्मिक दुःख के अंतर्गत रोग, व्याधि आदि शारीरिक दुःख और क्रोध, लोभ आदि मानसिक दुःख हैं । आधिभौतिक दुःख वह है जो स्थावर, जंगम (पशु,पक्षी साँप, मच्छड़ आदि) भूतों के द्वारा पहुँचता है । आधिदैविक जो देवताओं अर्थात् प्राकृतिक शक्तियों के द्वार पहुँचता है, जेसे,—आँधी, वर्षा, बज्रपात, शीत, ताप इत्यादि । दुःखों की निवृत्ति को साख्य ने अत्यंत पुरुषार्थ कहा है और शास्त्रजिज्ञासा का उद्देश्य बतलाया है । प्रधान दुःख जरा और मरण है जिनसे लिंगशरीर की निवृत्ति के बिना चेतन या पुरुष छुटकारा नहीं पा सकता है। इस प्रकार की मुक्ति या अत्यंत दुःखनिवृत्ति तत्वज्ञान द्वारा— प्रकृति और पुरुष के भेदज्ञान द्वारा—ही संभव है । 

रोग अर्थात अस्वस्थ होना। यह चिकित्साविज्ञान का मूलभूत संकल्पना है। प्रायः शरीर के पूर्णरूपेण कार्य करने में में किसी प्रकार की कमी होना ‘रोग’ कहलाता है। जिस व्यक्ति को रोग होता है उसे ‘रोगी’ कहते हैं। हिन्दी में ‘रोग’ को ‘बीमारी’ , ‘रुग्णता’, ‘व्याधि’ और ‘विकार’ भी कहते हैं।

रोग का उपचार करने या उसके लक्षणों को कम करने के लिए औषध और औषधशास्त्र (फार्मेकोलॉजी) के विज्ञान का उपयोग किया जाता है। मानसिक और शारीरिक विकृतियों के कारण होने वाली गंभीर आजीवन विकलांगता को वर्णित करने के लिए ‘विकासात्मक विकलांगता’ शब्द का उपयोग किया जाता है।

शरीर के किसी अंग/उपांग की संरचना का बदल जाना या उसके कार्य करने की क्षमता में कमी आना ‘रोग’ कहलाता है। किन्तु रोग की परिभाषा करना उतना ही कठिन है जितना ‘स्वास्थ्य’ को परिभाषित करना। सन् १९७४ तक विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा दी गयी ‘स्वास्थ्य’ की परिभाषा यह थी-

शारीरिक, मानसिक एवं सामाजिक तौर पर पूर्णतः ठीक होना ही स्वास्थ्य है; केवल रोगों की अनुपस्थिति को स्वास्थ्य नहीं कहते। इनमें से किसी भी एक अवस्था का शिकार होने पर, व्यक्ति को अस्वस्थ या बीमार माना जा सकता है।

शत्रु जनित पीड़ा का अर्थ है की हम जिसके साथ भारी विरोध या वेमनस्य से रहते हैं यह रिपु, दुश्मन और एक असुर के समान है।

भय मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है। विश्वास और विकास दोनों ही इससे कुंठित हो जाते हैं। भय मानसिक कमजोरी है। मन दुर्बल हो जाए तो शरीर भी दुर्बल हो जाता है। निर्भय मन स्वस्थ शरीर का आधार बनता है।

केशव कृष्ण ने बताया कि मनुष्य के अंदर छह सबसे बड़े शत्रु विराजमान रहते हैं – काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईष्र्या, द्वेष। 

ज्ञान से बड़ा व्यक्ति का कोई मित्र नहीं है. ज्ञानी व्यक्ति संसार में आने के उद्देश्य को अच्छी तरह समझता है और अपने कर्म को बेहतर तरीके से करता है. वो कभी सांसारिक बातों में नहीं पड़ता. मुश्किल समय में उसका ज्ञान ही उसे सही मार्ग दिखाता है. ऐसा व्यक्ति हर जगह सम्मान पाता है. 

वहीं मोह इंसान का सबसे बड़ा शत्रु है. ये मोह ही है, जो व्यक्ति को पक्षपाती बना देता है. सांसारिक चीजों में फंसा कर रखता है. उसे जीवन का मूल उद्देश्य नहीं समझने देता. ऐसा व्यक्ति दूसरों से उम्मीदें रखता है और दुख पाता है. यदि जीवन को सार्थक करना है तो मोह से खुद को दूर रखें. 

इंसान का सबसे बड़ा रोग काम वासना है. ऐसा व्यक्ति किसी काम में अपना मन नहीं लगा पाता. उसे हर वक्त इसी चीज का खयाल रहता है. काम वासना व्यक्ति को दिमागी रूप से बीमार बनाती है और उसके सोचने समझने की शक्ति को हर लेती है. क्रोध से भयंकर कोई आग नहीं है. क्रोध ऐसी अग्नि है जो व्यक्ति को अंदर ही अंदर जलाकर खोखला कर देती है. उसकी बुद्धि को हर लेती है. क्रोध में व्यक्ति अक्सर गलत निर्णय ले लेता है, जिसके लिए बाद में उसे पछताना पड़ता है.

भगवान शिव की पूजा करते ही ये दुख समाप्त हो जाते हैं और अक्षय सुखों की प्राप्ति होती है। वह सभी भोगों को प्राप्त कर अंत में मोक्ष प्राप्त करता है। शिवजी का पूजन करने वालों को धन, संतान और सुख की प्राप्ति होती है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों को सभी कामनाओं तथा प्रयोजनों की सिद्धि के लिए विधि अनुसार पूजा-उपासना करनी चाहिए ।


Posted

in

by

Tags:

Comments

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *