सचेतन 2.85 : रामायण कथा: सुन्दरकाण्ड – हनुमान जी के द्वारा प्रमदावन (अशोकवाटिका) का विध्वंस
शास्त्रों में शत्रु के शक्ति को जानने के लिए चार उपाय बताये हैं—साम, दान, भेद और दण्ड।
स्वागत है आपका हमारे इस विशेष सचेतन के सत्र में, जहां हम आपको सुनाएंगे हनुमान जी के प्रमदावन विध्वंस की अद्भुत कथा। आइए, इस रोमांचक यात्रा पर चलें।
बार बार नाएसि पद सीसा। बोला बचन जोरि कर कीसा।।
अब कृतकृत्य भयउँ मैं माता। आसिष तव अमोघ बिख्याता ।।
हनुमान् जी ने बार-बार सीता जी के चरणो मे सिर नवाया और फिर हाथ जोड़कर कहा- हे माता ! अब मै कृतार्थ हो गया । आपका आशीर्वाद अमोघ ( अचूक ) है , यह बात प्रसिद्ध है ।।
सुनहु मातु मोहि अतिसय भूखा। लागि देखि सुंदर फल रूखा।।
सुनु सुत करहिं बिपिन रखवारी। परम सुभट रजनीचर भारी ।। 4 ।।
हे माता ! सुनो, सुंदर फल वाले वृक्षो को देखकर मुझे बड़ी ही भूख लग आई है । ( सीता जी ने कहा- ) हे बेटा ! सुनो, बड़े भारी योद्धा राक्षस इस वन की रखवाली करते है ।।
तिन्ह कर भय माता मोहि नाहीं। जौं तुम्ह सुख मानहु मन माहीं ।। 5 ।।
( हनुमान् जी ने कहा – ) हे माता ! यदि आप मन मे सुख माने ( प्रसन्न होकर ) आज्ञा दे तो मुझे उसका भय तो बिलकुल नही है ।।
देखि बुद्धि बल निपुन कपि कहेउ जानकीं जाहु।
रघुपति चरन हृदयँ धरि तात मधुर फल खाहु ।।
हनुमान् जी को बुद्धि और बल मे निपुण देखकर जानकी जी ने कहा – जाओ । हे तात! श्री रघुनाथ जी के चरणो को हृदय मे धारण करके मीठे फल खाओ ।।
सीताजी से उत्तम वचनों द्वारा सम्मान पाकर जब वानरवीर हनुमान जी वहाँ से जाने लगे, तब वे उस स्थान से दूसरी जगह हटकर विचार करने लगे। उन्होंने सोचा, “मैंने कजरारे नेत्रोंवाली सीताजी का दर्शन तो कर लिया, अब मेरे इस कार्य का थोड़ा-सा अंश शेष रह गया है। शत्रु की शक्ति का पता लगाना बाकी है।
शास्त्रों में शत्रु के शक्ति को जानने के लिए चार उपाय बताये हैं—साम, दान, भेद और दण्ड। हनुमान जी को यहाँ साम आदि तीन उपायों को लाँघकर केवल चौथे उपाय, यानी दण्ड का प्रयोग ही उपयोगी दिखता है। राक्षसों के प्रति सामनीति का प्रयोग करने से कोई लाभ नहीं होता। इनके पास धन भी बहुत है, अतः इन्हें दान देने का भी कोई उपयोग नहीं है। इसके सिवा, ये बल के अभिमान में चूर रहते हैं, अतः भेदनीति के द्वारा भी इन्हें वश में नहीं किया जा सकता। ऐसी दशा में मुझे यहाँ पराक्रम दिखाना ही उचित जान पड़ता है।
इस कार्य की सिद्धि के लिए पराक्रम के सिवा यहाँ और किसी उपाय का अवलम्बन ठीक नहीं जंचता। यदि युद्ध में राक्षसों के मुख्य-मुख्य वीर मारे जाएँ तो ये लोग किसी तरह नरम पड़ सकते हैं। जो पुरुष प्रधान कार्य के सम्पन्न हो जाने पर दूसरे बहुत-से कार्यों को भी सिद्ध कर लेता है और पहले के कार्यों में बाधा नहीं आने देता, वही कार्य को सुचारु रूप में कर सकता है।
छोटे-से-छोटे कर्म की भी सिद्धि के लिए कोई एक ही साधक हेतु नहीं हुआ करता। जो पुरुष किसी कार्य या प्रयोजन को अनेक प्रकार से सिद्ध करने की कला जानता हो, वही कार्य-साधन में समर्थ हो सकता है। यदि इसी यात्रा में मैं इस बात को ठीक-ठीक समझ लूँ कि अपने और शत्रुपक्ष में युद्ध होने पर कौन प्रबल होगा और कौन निर्बल, तत्पश्चात् भविष्य के कार्य का भी निश्चय करके आज सुग्रीव के पास चलूँ तो मेरे द्वारा स्वामी की आज्ञा का पूर्णरूप से पालन हुआ समझा जाएगा।
हनुमान जी सोचते हैं की परंतु आज मेरा यहाँ तक आना सुखद अथवा शुभ परिणाम का जनक कैसे होगा? राक्षसों के साथ हठात् युद्ध करने का अवसर मुझे कैसे प्राप्त होगा? तथा दशमुख रावण समर में अपनी सेना को और मुझे भी तुलनात्मक दृष्टि से देखकर कैसे यह समझ सकेगा कि कौन सबल है?
हनुमान जी के इस विचार ने उन्हें यह निष्कर्ष निकालने पर मजबूर किया कि उन्हें राक्षसों के साथ युद्ध कर उनकी शक्ति का परीक्षण करना ही उचित है। अब आगे क्या हुआ, ये जानना ज़रूरी है क्योंकि हनुमान जी की अद्वितीय वीरता की कहानी सुनाने जा रहे हैं।
अब वीर हनुमान जी ने लंका में अपने पराक्रम का प्रदर्शन करेंगे –
हनुमान जी ने सोचा उस युद्ध में, मंत्री, सेना और सहायकों सहित रावण का सामना करके मैं उसके हार्दिक अभिप्राय तथा सैनिक-शक्ति का अनायास ही पता लगा लूँगा। इसके बाद यहाँ से जाऊँगा। इस निर्दयी रावण का यह सुन्दर उपवन नेत्रों को आनन्द देने वाला और मनोरम है। नाना प्रकार के वृक्षों और लताओं से व्याप्त होने के कारण यह नन्दनवन के समान उत्तम प्रतीत होता है। जैसे आग सूखे वन को जला डालती है, उसी प्रकार मैं भी आज इस उपवन का विध्वंस कर डालूँगा। इसके भग्न हो जाने पर रावण अवश्य मुझ पर क्रोध करेगा। तत्पश्चात् वह राक्षसराज हाथी, घोड़े तथा विशाल रथों से युक्त और त्रिशूल, कालायस एवं पट्टिश आदि अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित बहुत बड़ी सेना लेकर आयेगा। फिर तो यहाँ महान् संग्राम छिड़ जाएगा। उस युद्ध में मेरी गति रुक नहीं सकती। मेरा पराक्रम कुण्ठित नहीं हो सकता। मैं प्रचण्ड पराक्रम दिखाने वाले उन राक्षसों से भिड़ जाऊँगा और रावण की भेजी हुई उस सारी सेना को मौत के घाट उतारकर सुखपूर्वक सुग्रीव के निवासस्थान किष्किन्धापुरी को लौट जाऊँगा।
ऐसा जान पड़ा की हनुमान जी के मन में युद्ध का बिगुल बज गया हो।