सचेतन 246: शिवपुराण- वायवीय संहिता – बालक सुतनु द्वारा मातृका का ज्ञान

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तर्कों के अध्ययन से मन में केवल भ्रम हो सकता है। 

एक बार की बात है की मन में मातृका शक्ति यानी मंत्र के महत्व और इसके प्रभाव  के प्रश्नों को लेकर ब्राह्मण यानी जानकार व्यक्ति की खोज के लिए नारद जी कलाप ग्राम पहुंचे। कहते हैं की कलाप ग्राम वह स्थान है, जहां सतयुग के लिए सूर्य वंश, चन्द्र वंश और ब्राह्मण वंश के बीज सुरक्षित हैं। वहां जा कर नारद जी ब्राह्मणों से अपने प्रश्नों के समाधान के लिए कहा। वहां के विद्वान ब्राह्मण ने कहा की “पहले मैं उत्तर दूंगा, पहले मैं उत्तर दूंगा ” ऐसा कह कर एक दुसरे को मना करने लगे। 

तब नारद जी ने उनके सामने प्रश्न को रखा। प्रश्न सुन कर ब्राह्मण ने कहा विप्रवर! आपके प्रश्न तो बालकों जैसा छोटा, और आप हम लोगों में जिसे सबसे छोटा और ज्ञानहीन समझते हों, उनका चयन कर लीजिए और वही इस प्रश्न का उत्तर देंगे। यह सुन कर नारद जी को बड़ा आश्चर्य हुआ!  नारद जी ने अपने को कृतार्थ माना और उनमें से एक बालक जो सबसे हीन था उसे प्रश्नों के उत्तर देने कहा और उस बालक का नाम सुतनु था। 

नारद जी ने बालक सुतनु के सामने यह प्रश्न रखा की मातृका को कौन विशेष रूप से जानता है? वह मातृका कितने प्रकार की और कैसे अक्षरों वाली है?

बालक सुतनु ने कहा की मातृका में बावन अक्षर बताये गए हैं। इनमें सबसे प्रथम अक्षर ॐकार है। उसके सिवा चौदह स्वर, तैतीस व्यंजन, अनुस्वर, विसर्ग, जिव्हामूलीय तथा उप्षमानीय – ये सब मिला कर बावन मातृका वर्ण माने गए हैं । द्विजवर! यह तो मैंने आपसे अक्षरों की संख्या बतायी है। अब इनका अर्थ सुनिए । इस अर्थ के विषय में पहले आपसे एक इतिहास कहूँगा। 

पूर्व काल की बात है, मिथिला नगरी में कौथुम नाम से प्रसिद्ध एक ब्राह्मण रहते थे । उन्होंने इस पृथ्वी पर प्रचलित सभी विद्याओं को पढ़ लिया था। अध्ययन कर के जब वे गृहस्थ हुए तब कुछ काल के बाद उनका एक पुत्र हुआ। उस पुत्र के सारे कार्य जड़ की भाँती होते थे। उसने केवल मातृका पढ़ी। मातृका पढने के बाद वह किसी प्रकार की कोई दूसरी बात याद ही नहीं करता था। उसके पिता उसकी इस बात से बड़े खिन्न हुए और उस जड़ बालक से कहने लगे – “बेटा ! पढो, पढो, मैं तुम्हें मिठाई दूंगा और नहीं पढोगे तो यह मिठाई दुसरे को दे दूंगा और तुम्हारे दोनों कान उखाड़ लूँगा।”

यह सुन कर पुत्र ने कहा – पिताजी! क्या मिठाई लेने के लिए पढ़ा जाता है? क्या लोभ की पूर्ती ही अध्ययन का उद्देश्य है?  अध्ययन तो उसका नाम है, जो मनुष्यों को परलोक में लाभ पहुचाने वाला हो।

कौथुम बोले – वत्स! ऐसी बातें कहने वाले तेरी आयु बढे। तेरी यह बुद्धि बहुत अच्छी है। पर तू पढता क्यों नहीं है ?

पुत्र ने कहा – पिताजी! जानने योग्य जितनी भी बातें हैं, वे सब तो मैंने मातृका में ही जान ली। बताइए, इसके बाद अब कंठ किसलिए सुखाया जाये?

पिता बोले – वत्स! तू तो आज बड़ी विचित्र बात कहता है। मातृका में तूने किस ज्ञातव्य अर्थ का ज्ञान प्राप्त किया है? बता बता। मैं तेरी बात सुनना चाहता हूँ।

पुत्र ने कहा – पिताजी! आपने इकतीस हजार वर्षों तक नाना प्रकार के तर्कों का अध्ययन करते हुए भी अपने मन में केवल भ्रम का ही साधन किया है। 

‘यह धर्म है, यह धर्म है’ ऐसा कह कर शास्त्रों में जो धर्म बताया गया है, उसमें चित्त भ्रांत सा हो जाता है। आप उपदेश को केवल पढ़ते हैं उसके वास्तविक अर्थ की जानकारी नहीं रखते। जो ब्राह्मण केवल पाठ मात्र करते हैं, अर्थ नहीं समझते, वे दो पैर वाले पशु हैं। 

अतः मैं आपसे मोह नाशक वचन सुनाता हूँ। अकार ब्रह्मा कहे गए हैं, भगवान् विष्णु उकार बतलाये गये  हैं, मकार को भगवान् महेश्वर का प्रतीक माना गया है। ये तीन गुणमय स्वरुप बताये गये  हैं। ॐकार के मस्तक पर जो अनुस्वार रूप अर्द्धमात्रा है, वह सर्वोत्कृष्ट भगवान् सदाशिव का ही प्रतीक है। यह है ॐकार की महिमा जिसका वर्णन कोटि कोटि ग्रंथो द्वारा दस हजार वर्षों में भी नहीं किया जा सकता।

पुनः जो मातृका का सार सर्वस्व बताया गया है उसे सुनिए – अकार से लेकर औकार तक जो चौदह स्वर हैं, वे चौदह मनुस्वरूप हैं। सनातन धर्म के अनुसार मनु संसार के प्रथम योगीपुरुष थे। प्रथम मनु का नाम स्वयंभुव मनु था, जिनके संग प्रथम स्त्री थी शतरूपा। ये ‘स्वयं भू’ (अर्थात स्वयं उत्पन्न ; बिना माता-पिता के उत्पन्न) होने के कारण ही स्वयंभू कहलाये। इन्हीं प्रथम पुरुष और प्रथम स्त्री की सन्तानों से संसार के समस्त जनों की उत्पत्ति हुई। मनु की सन्तान होने के कारण वे मानव या मनुष्य कहलाए। स्वायंभुव मनु को आदि भी कहा जाता है। आदि का अर्थ होता है प्रारंभ।

चौदह मनुस्वरूप   में स्वायम्भुव, स्वारोचिष, औत्तम, रैवत, तामस, छठे चाक्षुष, सातवें वैवस्वत – जो इस समय वर्तमान है, सावार्णि, ब्रह्मसावार्णि, रुद्रसावार्णि, दक्षसावार्णि, धर्मसावार्णि, रौच्य तथा भौत्य – ये चौदह मनु हैं । 

श्वेत, पाण्डु, लोहित, ताम्र, पीत , कपिल, कृष्ण, श्याम, धूम्र, अधिक पिंगल, थोडा पिंगल, तिरंगा, बहुरंगा तथा कबरा – ये चौदह मनुओं के रंग हैं। 

पिताजी! वैवस्तव मनु ऋकार स्वरुप हैं। उनका रंग काला बताया गया है । ‘क’ ले लेकर ‘ह’ तक तैंतीस देवता हैं। ‘क’ से लेकर ‘ठ’  तक तो बारह आदित्य माने गये हैं। ‘ड’ से लेकर ‘ब’ तक  जो अक्षर हैं वे ग्यारह रूद्र हैं। ‘भ’ से लेकर ‘ष’ तक आठ वसु माने गये  हैं। ‘स’ और ‘ह’ – ये दोनों अश्विनी कुमार  बताये गये हैं। इस प्रकार ये तैतीस देवता कहे गये हैं। 

पिताजी ! अनुस्वार, विसर्ग, जिव्हा मूलिय और उपध्मानीय – ये  चार अक्षर जरायुज, अंडज, स्वेदज और उद्विज्ज नामक चार प्रकार के जीव बताये गये हैं ।

पिताजी! ये भावार्थ बताया गया है अब तत्वार्थ सुनिए। जो पुरुष इन देवताओं का आश्रय लेकर कर्म अनुष्ठान में तत्पर होते हैं वे ही सदाशिव में लीन होते हैं। जिस शास्त्र में पापी मनुष्यों के द्वारा ये देवता नहीं माने गये हैं, उस शास्त्र को साक्षात् ब्रह्मा जी भी कहें तो नहीं मानना चाहिये। अजितेन्द्रिय मनुष्यों के मोह की महिमा तो देखो, वे पापी मातृका पढ़ते तो हैं, परन्तु इन देवताओं को नहीं मानते ।

बालक सुतनु ने नारद जी से कहा की इस प्रकार मैंने आपके मातृका संबंधित प्रश्न का उत्तर दिया है अब आप अगले प्रश्न के बारे में पूछिए।

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