सचेतन- 2: सुनने मात्र से चेतना की जागृति का मार्ग
चेतना को जानने के तीन मार्ग
- श्रवण (Shravanam)
– गुरु से वेद, उपनिषद और शास्त्रों के उपदेश को श्रद्धा से सुनना। - मनन (Mananam)
– सुने हुए ज्ञान पर गहराई से विचार करना, संदेहों को दूर करना। - निदिध्यासन (Nididhyasanam)
– ध्यान और साधना द्वारा उस ज्ञान को आत्मसात करना और ब्रह्म का प्रत्यक्ष अनुभव करना।
1. श्रवण (Shravanam) – “सुनना और ग्रहण करना”
परिभाषा:
श्रवण का अर्थ है – गुरु या आचार्य से वेद, उपनिषद, भगवद्गीता जैसे शास्त्रों का ज्ञान श्रद्धा और ध्यानपूर्वक सुनना।
महत्व:
- यह पहली सीढ़ी है ज्ञान प्राप्ति की।
- बिना श्रवण के सही ज्ञान संभव नहीं।
- गुरु की भूमिका यहाँ सबसे महत्वपूर्ण होती है क्योंकि वही शास्त्रों के गूढ़ रहस्यों को समझने में सहायता करते हैं।
कैसे करें:
- एक योग्य गुरु से शास्त्रों का नियमित अध्ययन करें।
- केवल शब्द नहीं, भाव को भी समझने का प्रयास करें।
- मन को शांत और ग्रहणशील बनाएँ।
कहानी: अर्जुन का श्रवण – समर्पण से ज्ञान की ओर
कुरुक्षेत्र का मैदान युद्ध के लिए तैयार था। दोनों सेनाएँ आमने-सामने खड़ी थीं। हाथों में धनुष लिए अर्जुन रथ के सामने खड़े थे, लेकिन उनके मन में द्वंद्व था।
अपने ही बंधु-बांधवों को सामने देख अर्जुन का मन विचलित हो गया। उन्होंने धनुष नीचे रख दिया और श्रीकृष्ण से कहा, “मैं इस युद्ध को नहीं लड़ सकता… मेरा हृदय कांप रहा है, मेरी बुद्धि भ्रमित हो गई है।”
यह सुनकर श्रीकृष्ण ने उन्हें देखा और मुस्कराते हुए पूछा,
“क्या यह योद्धा की भाषा है, पार्थ? जीवन का सत्य इससे बहुत बड़ा है।”
तभी अर्जुन ने झुककर अपने दोनों हाथ जोड़ते हुए कहा:
“शिष्यः तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्”
— “मैं अब आपका शिष्य हूँ, मुझे उपदेश दीजिए, मैं आपके शरण में हूँ।”
वहीं से श्रवण की यात्रा शुरू हुई।
अर्जुन ने युद्धभूमि को ही एक कक्षा बना दिया और श्रीकृष्ण को अपना गुरु। उन्होंने गीता का प्रत्येक श्लोक ध्यान से सुना — न तर्क किया, न विरोध — केवल श्रद्धा और समर्पण से।
उन्होंने न यह पूछा कि “क्या यह सच है?”
बल्कि उन्होंने सुना कि “सत्य क्या है?”
यही होता है श्रवणम् — जब शिष्य अपने अहं को छोड़कर, ज्ञान के लिए पूर्णरूप से खुल जाता है।
और जैसे ही अर्जुन ने उस ज्ञान को हृदय से ग्रहण किया, उनका भ्रम दूर हुआ।
धनुष फिर से उठा — लेकिन इस बार एक ज्ञानी योद्धा के रूप में।
सीख:
जैसे अर्जुन ने बिना शास्त्रों को पढ़े, केवल गुरु से श्रवण करके ब्रह्मज्ञान को पाया, वैसे ही हर साधक को पहले श्रवण, फिर मनन, और अंत में निदिध्यासन की राह पर चलना चाहिए।