सचेतन:बुद्धचरितम्-6 स्त्रीविघातन

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सचेतन:बुद्धचरितम्-6 स्त्रीविघातन

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स्त्रीविघातन (Renunciation of Women): यह सर्ग बुद्ध की महल की स्त्रियों और उनके प्रति उनकी अनासक्ति का वर्णन करता है।अभिनिष्क्रमण (The Great Renunciation): बुद्ध के महल छोड़ने और संन्यासी जीवन को अपनाने का वर्णन। Renunciation रिˌनन्‌सिˈएश्‌न्‌ यानी किसी वस्‍तु या विश्‍वास को औपचारिक रूप से त्‍याग देना; परित्‍याग
बुद्ध के जीवन की एक रोचक घटना यह है जब वे अभी राजकुमार सिद्धार्थ थे और उनका सामना नगर की स्त्रियों से हुआ था। यह घटना उनके वैराग्य की ओर बढ़ने के महत्वपूर्ण कदमों में से एक थी।

एक दिन, नगर की कुछ स्त्रियाँ नगर उद्यान से बाहर निकलकर राजपुत्र सिद्धार्थ के पास आईं। उनके हाथों में कमल के फूल थे, जिन्हें उन्होंने उसके स्वागत के लिए लाया था। इन स्त्रियों का उद्देश्य युवा राजकुमार को उनकी ओर आकर्षित करना था। हालाँकि, जब उन्होंने राजपुत्र को देखा, तो उनकी खूबसूरती और तेज से इतनी अभिभूत हो गईं कि कुछ क्षण के लिए वो बोल नहीं पाईं, सिर्फ उसे निहारती रहीं।

तभी पुरोहित का पुत्र उदायी ने उन्हें संबोधित किया और कहा, “आप सभी अपनी कला में निपुण हैं, भावों को समझने में पारंगत हैं और आपके पास जो चातुर्य है, उससे आपने प्रमुखता प्राप्त की है। स्त्रियों का तेज महान होता है।” उदायी ने फिर कहा कि अतीत में ऋष्यश्रृंग जैसे अनभिज्ञ व्यक्तियों का भी स्त्रियों ने अपहरण किया था और विश्वामित्र जैसे महान तपस्वी भी अप्सरा के प्रेम में पड़ गए थे। उसने स्त्रियों से आग्रह किया कि वे ऐसा प्रयत्न करें जिससे राजा के वंश की शोभा यहां से विरक्त न हो।

स्त्रियों ने उदायी की बात सुनकर राजपुत्र को लुभाने के लिए तरह-तरह के प्रयास शुरू कर दिए। किसी ने तो लोक-लज्जा को त्यागकर अपने वस्त्रों को हटा दिया, तो किसी ने उसे चूमने की कोशिश की। वे सभी विभिन्न प्रकार के हाव-भाव दिखाकर उसे प्रभावित करने का प्रयास करती रहीं।

सिद्धार्थ इससे विचलित नहीं हुआ। वह चिंतन में डूब गया और सोचने लगा कि क्या ये स्त्रियाँ यौवन को क्षणिक नहीं समझतीं? क्या वे नहीं जानतीं कि वृद्धावस्था, रोग, और मृत्यु इनके यौवन को नष्ट कर देगी? उसे आश्चर्य होता है कि कैसे वे सब कुछ हर लेने वाली मृत्यु से अनभिज्ञ होकर इतनी प्रसन्न और उद्वेगरहित रह सकती हैं।

वे अपने राजसी जीवन और वैभव को छोड़कर सच्चाई और शांति की खोज में निकलना चाह रहे थे। इस यात्रा में उनका साथ दे रहे थे उनके मित्र उदायी, जो नीतिशास्त्र के गहन ज्ञानी थे।

एक दिन, जब सिद्धार्थ ध्यान की गहरी अवस्था में मग्न थे, उदायी ने उन्हें इस अवस्था में देखा। उदायी को अपने मित्र की इस गहन साधना की अवस्था में भी उसकी चिंता सता रही थी। उसने सोचा कि यह समय सिद्धार्थ को जीवन के कुछ महत्वपूर्ण सबक याद दिलाने का है, जो केवल एक सच्चा मित्र ही दे सकता है।

उदायी ने सिद्धार्थ के पास जाकर धीरे से कहा, “मैं तुम्हारा मित्र हूँ, और एक मित्र के नाते मैं तुम्हें यह कहना चाहता हूँ कि मित्रता का अर्थ है तुम्हारे हित में काम करना, तुम्हारे अहित में तुम्हें रोकना, और विपत्ति के समय में भी तुम्हें न छोड़ना।”

सिद्धार्थ ने उदायी की बातों को ध्यान से सुना। उन्होंने महसूस किया कि उनका मित्र उनके लिए कितना चिंतित है और उनके कल्याण की कामना करता है। उदायी की ये बातें सिद्धार्थ के मन में गहराई तक उतर गईं और उन्होंने इसे अपने जीवन और अपने ध्यान के पथ पर चलने के लिए एक मार्गदर्शक के रूप में आत्मसात किया।

उदायी ने कहा, “मित्र! तुम इतने सुंदर और युवा हो, और तुम्हारे आसपास इतनी सुंदर स्त्रियां हैं। इनके प्रति तुम्हारी उदासीनता समझ से परे है। देवता इंद्र ने भी अहल्या के साथ प्रेम किया था, और अनेक महान पुरुषों ने भी प्रेम के रास्ते चुने हैं।”

लेकिन सिद्धार्थ ने उत्तर दिया, “मित्र, मैं इन विषयों की उपेक्षा नहीं करता और न ही मैं इन्हें नकारता हूँ। मैं संसार को और इसके विषयों को जानता हूँ, लेकिन मेरा मन इसे अनित्य मानकर इसमें रम नहीं पा रहा है। मेरा हृदय कुछ उच्च और शाश्वत की खोज में लगा है।”

यह उत्तर सुनकर उदायी ने समझा कि सिद्धार्थ की खोज बहुत गहरी है, और वे एक सामान्य राजकुमार के जीवन से कहीं आगे जाना चाहते हैं। यह घटना सिद्धार्थ के जीवन में एक महत्वपूर्ण पल बन गई, जिसने उन्हें यह सिखाया कि वास्तविक मित्रता क्या होती है और यह कैसे जीवन के कठिन समय में भी सहारा बनती है।

सिद्धार्थ ने सोचा, “यदि जरा, व्याधि और मृत्यु नहीं होते, तो शायद मैं भी इन सभी मनोहर विषयों में अपना मन रमा लेता। पर इन सभी को देखकर मेरा मन अत्यंत व्याकुल और भयभीत हो उठता है। मैं इस जगत को जलती हुई अग्नि की तरह देखता हूँ, जहाँ मुझे न शांति मिलती है और न ही धैर्य।”

उनके इस प्रवचन से स्त्रियाँ इतनी प्रभावित हुईं कि उन्होंने अपने भीतर के काम भाव को दबा दिया और निराश होकर वापस नगर की ओर लौट गईं।

सूर्य अस्ताचल की ओर जा रहा था, और उसके अस्त होने के साथ ही, स्त्रियों के चेहरे पर छाई निराशा स्पष्ट दिखाई दे रही थी। राजकुमार सिद्धार्थ भी महल में प्रवेश कर गए, लेकिन उनका मन अब भी विश्व की मोह-माया में नहीं बंधा था।

इस बात का पता जब राजा शुद्धोदन को चला, तो उन्हें गहरा दुख हुआ। उन्होंने सोचा था कि उनका पुत्र एक महान राजा बनेगा और राजवंश की शान बढ़ाएगा, लेकिन अब जब उन्होंने सुना कि राजकुमार का मन सांसारिक विषयों में नहीं लग रहा, तो उनके हृदय को बहुत पीड़ा हुई। उन्हें ऐसा लगा मानो किसी ने उनके हृदय में बाण चुभो दिया हो। उस रात राजा की आँखों में नींद नहीं आई, और वे चिंतित होकर सोचते रहे कि आगे क्या होगा।

यही उनके बुद्धत्व की ओर का अगला कदम था, जहाँ उन्होंने बाद में सच्चे ज्ञान को प्राप्त किया और जगत को अपनी शिक्षाओं का प्रसार किया। यह प्रसंग न केवल बुद्ध के वैराग्य की ओर उनके इस कदम को दर्शाता है, बल्कि यह भी बताता है कि कैसे एक महान आत्मा के निर्णय से उनके अपनों पर भी गहरा प्रभाव पड़ता है। इस घटना ने बुद्ध के जीवन को एक नई दिशा दी, और वे आगे चलकर महान बुद्ध के रूप में जाने गए।

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