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मन्दोदरी को देखकर हनुमान जी सीता समझकर प्रसन्न होने लगे। पत्नियों के प्रेमी उस महाकाय राक्षसराज रावण के घर में हनुमान जी ने उसकी पत्नियों को भी देखा, जो उसके चरणों के आस-पास ही सो रही थीं। वानरयूथपति हनुमान् जी ने देखा, उन रावणपत्नियों के मुख चन्द्रमा के समान प्रकाशमान थे। वे सुन्दर कुण्डलों से विभूषित थीं तथा ऐसे फूलों के हार पहने हुए थीं, जो कभी मुरझाते नहीं थे। वे नाचने और बाजे बजाने में निपुण थीं। उन सबकी शय्याओं से पृथक् एकान्त में बिछी हुई सुन्दर शय्या पर सोयी हुई एक रूपवती युवती को वहाँ हनुमान जी ने देखा। वह मोती और मणियों से जड़े हुए आभूषणों से भलीभाँति विभूषित थी और अपनी शोभा से उस उत्तम भवन को विभूषित-सा कर रही थी। वह गोरे रंग की थी। उसकी अंगकान्ति सुवर्ण के समान दमक रही थी। वह रावण की प्रियतमा और उसके अन्तःपुर की स्वामिनी थी। उसका नाम मन्दोदरी था। वह अपने मनोहर रूप से सुशोभित हो रही थी। वही वहाँ सो रही थी। हनुमान जी ने उसी को देखा। रूप और यौवन की सम्पत्ति से युक्त और वस्त्राभूषणों से विभूषित मन्दोदरी को देखकर महाबाहु पवनकुमार ने अनुमान किया कि ये ही सीताजी हैं। फिर तो ये वानरयूथपति हनुमान् महान् हर्ष से युक्त हो आनन्दमग्न हो गये। वे अपनी पूँछ को पटकने और चूमने लगे। अपनी वानरों-जैसी प्रकृति का प्रदर्शन करते हुए आनन्दित होने, खेलने और गाने लगे, इधर-उधर आने-जाने लगे। वे कभी खंभों पर चढ़ जाते और कभी पृथ्वी पर कूद पड़ते थे। फिर उस समय इस विचार को छोड़कर महाकपि हनुमान जी अपनी स्वाभाविक स्थिति में स्थित हुए और वे सीताजी के विषय में दूसरे प्रकार की चिन्ता करने लगे। (उन्होंने सोचा-) ‘भामिनी सीता श्रीरामचन्द्रजी से बिछुड़ गयी हैं। इस दशा में वे न तो सो सकती हैं, न भोजन कर सकती हैं, न शृंगार एवं अलंकार धारण कर सकती हैं, फिर मदिरापान का सेवन तो किसी प्रकार भी नहीं कर सकतीं। ‘वे किसी दूसरे पुरुष के पास, वह देवताओं का भी ईश्वर क्यों न हो, नहीं जा सकतीं। देवताओं में भी कोई ऐसा नहीं है जो श्रीरामचन्द्रजी की समानता कर सके। ‘अतः अवश्य ही यह सीता नहीं, कोई दूसरी स्त्री है।’ ऐसा निश्चय करके वे कपिश्रेष्ठ सीताजी के दर्शन के लिये उत्सुक हो पुनः वहाँ की मधुशाला में विचरने लगे। वहाँ कोई स्त्रियाँ क्रीड़ा करने से थकी हुई थीं तो कोई गीत गाने से। दूसरी नृत्य करके थक गयी थीं और कितनी ही स्त्रियाँ अधिक मद्यपान करके अचेत हो रही थीं। हनुमान जी को प्रत्यक्ष (इंद्रिय सन्निकर्ष) द्वारा सीता जी के अस्तित्व का ज्ञान नहीं हो रहा था। उनका आभास और ज्ञान किसी ऐसी स्त्री को प्रत्यक्ष देखने के ज्ञान के आधार पर था, जो उस अप्रत्यक्ष सीता जी के अस्तित्व का संकेत और पहचान के ज्ञान पर पहुँचने की प्रक्रिया के लिए हनुमान जी अनुमान लगा रहे थे। वैसे अनुमान दो प्रकार का होता हैं– स्वार्थ अनुमान और परार्थ अनुमान स्वार्थ अनुमान अपनी वह मानसिक प्रक्रिया है जिसमें बार-बार के प्रत्यक्ष अनुभव के आधार पर अपने मन में व्याप्ति का निश्चय हो गया हो। किंतु परार्थ अनुमान में हमको किसी दूसरे व्यक्ति को पक्ष में साध्य के अस्तित्व का नि:शंक निश्चय कराना होता है और हमको अपने मनोगत को पाँच अंगों को प्रकट करना होता है- प्रतिज्ञा – अर्थात् जो बात सिद्ध करनी हां उसका कथन। उदाहरण : सीता माता की खोज का लक्ष्य हेतु – क्यों ऐसा अनुमान किया जाता हैं, इसका कारण अर्थात् पक्ष में लिंग की उपस्थिति का ज्ञान कराना। उदाहरण- हनुमान जी का लंका में प्रवेश और रावण के अंतःपुर में रावण की विभिन्न भार्याओं का निरीक्षण करना।उदाहरण – सपक्ष और विपक्ष दृष्टांतों द्वारा व्याप्ति का कथन करना, उदाहराण : हनुमान जी मंदोदरी को देख कर सीता माता की छवि को समझना लेकिन इस दशा में सीता जी न तो सो सकती हैं, न भोजन कर सकती हैं, न शृंगार एवं अलंकार धारण कर सकती हैं, फिर मदिरापान का सेवन तो किसी प्रकार भी नहीं कर सकतीं। उपनय – यह बतलाना कि यहाँ पर पक्ष में ऐसा ही लिंग उपस्थित है जो साध्य के अस्तित्व का संकेत करता है। महाकपि हनुमान जी अपनी स्वाभाविक स्थिति हो कर सीताजी के विषय में दूसरे प्रकार की चिन्ता करने लगे।निगमन – यह सिद्ध हुआ कि सीता माता लंका पूरी में ही हैं।