सचेतन 212: शिवपुराण- वायवीय संहिता – हमारी आध्यात्मिक यात्रा
जीवन में वास्तविकता और आपके चेतना के बीच संतुलन आपको ‘पशुपति’ बना देता है।
सचेतन तो हमारी यात्रा है- पशु से परमात्मा बनने तक। हम वानर (बंदर) थे। हम नर बन गये हैं । हमें नारायण (सभी पशु और मानव विशेषताओं का स्वामी, जो इन दोनों से परे है) बनना है। यह हमारी आध्यात्मिक यात्रा है.
उदाहरण के लिए, छाया प्रकाश के बिना मौजूद नहीं हो सकती। अवलोकन की कसौटी के आधार पर, दोनों प्रमुख पहलुओं में से कोई भी किसी विशेष वस्तु में अधिक मजबूती से प्रकट हो सकता है। यिन और यांग प्रतीक (या ताईजितु) प्रत्येक अनुभाग में विपरीत तत्व के एक हिस्से के साथ दो विपरीत तत्वों के बीच संतुलन दिखाता है।
संतुलन हमारे वास्तविकता यानी यथार्थ या कहें की आपकी मूलभुत-मौलिक प्रकृति, अस्तित्व, अस्मिता, परिवर्तन, समय, कार्य-कारणता, अनिवार्यता तथा संभावना और आपके चेतना की प्रकृति और मन और गुण के बीच, और आपकी क्षमता और वास्तविक संभावना के बीच संबंध के बारे में अपने आपको ‘पशुपति’ के रूप में शामिल करना पड़ता है।
भारत में हम इन दो पहलुओं को पुरुष और प्रकृति कहते हैं। शिव और शक्ति, देवता और असुर, देवताओं और असुरों का युद्ध, हमारे भीतर की इन दो शक्तियों के बीच संघर्ष का प्रतीक है।
मुनियों ने वायु देवता से पूछा-आपने वह कौन सा मनमन्थ प्राप्त किया, जो सत्य से भी परम सत्य एवं शुभ है तथा जिसमें उत्तम निष्ठा रखकर पुरुष परमानन्द को प्राप्त करता है?
वायु देवता का उत्तर था हमारा मनमन्थ सिर्फ़ जीवन में वास्तविकता यानी यथार्थ या कहें की आपकी मूलभुत-मौलिक प्रकृति, अस्तित्व, अस्मिता, परिवर्तन, समय, कार्य-कारणता, अनिवार्यता तथा संभावना और आपके चेतना की प्रकृति और मन और गुण के बीच संतुलन बनाने के लिए होना चाहिए।
आपको मनमन्थ उन संभावनाओं की करनी है जो आपकी क्षमता और वास्तविक के बीच संबंध के बारे में ज्ञान दे। आपको अपने आपको ‘पशुपति’ के रूप में शामिल करना पड़ता है।
आपको मनमन्थ उन दो पहलुओं के लिए करनी है जिसको हम पुरुष और प्रकृति कहते हैं। शिव और शक्ति, देवता और असुर, देवताओं और असुरों का युद्ध, जो हमारे भीतर चलता इन दो शक्तियों के बीच संघर्ष के लिये मनमन्थ करना है।
वायु देवता बोले-महर्षियो ! पूर्वकाल में पशु-पाश और पशुपति का जो ज्ञान प्राप्त किया था, सुख चाहने वाले पुरुष को उसी में ऊँची निष्ठा रखनी चाहिये। अज्ञान से उत्पन्न होनेवाला दुख ज्ञान से ही दूर होता है। वस्तु के विवेक का नाम ज्ञान है। इंसान हर जीव की मिली जुली अभिव्यक्ति है। तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में लिखा है कि सत्संग के बिना विवेक नहीं होता।वैसे तो मनमन्थ से हम सचेतन की ओर यात्रा करना शुरू कर चुके हैं – पशु से परमात्मा बनने तक की यह हमारी आध्यात्मिक यात्रा है।
वायु देवता ने महर्षियो को वस्तु के तीन भेद बताये हैं- जड (प्रकृति ), चेतन (जीव) और उन दोनों का नियन्ता (परमेश्वर)। इन्हीं तीनों को क्रम से पाश, पशु तथा पशुपति कहते हैं। तत्त्वज्ञ पुरुष प्राय: इन्हीं तीन तत्त्व को क्षर, अक्षर तथा उन दोनों से अतीत कहते हैं। अक्षर ही पशु कहा गया है। क्षर तत्त्व का ही नाम पाश है तथा क्षर और अक्षर दोनों से परे जो परम तत्व है, उसी को पति या पशुपति कहते हैं। प्रकृति को ही क्षर कहा गया है। पुरुष (जीव) -को ही अक्षर कहते हैं और जो इन दोनों को प्रेरित करता है, वह क्षर और अक्षर दोनों से भिन्न तत्त्व परमेश्वर कहा गया है।
तत्त्वज्ञ वह है जो सभी जीवों का सत्य स्वरूप जानता है और कर्म करके सभी प्रकार के दर्द का निवारण करता है।