सचेतन:बुद्धचरितम्-13 अन्तःपुरविलाप (Lamentation of the Palace):

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सचेतन:बुद्धचरितम्-13 अन्तःपुरविलाप (Lamentation of the Palace):

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महल में बुद्ध के जाने के बाद की विलाप का वर्णन।

जब राजकुमार सिद्धार्थ ने संन्यास ग्रहण कर वन की ओर प्रस्थान किया, तब उनके प्रिय सारथी छन्दक और उनका घोड़ा कन्धक उन्हें रोकने का पूरा प्रयास करते रहे। लेकिन सिद्धार्थ का संकल्प अडिग था। वे सांसारिक मोह और बंधनों से मुक्त होकर सत्य की खोज में निकल पड़े।

छन्दक और कन्धक के लिए यह विदाई बहुत ही दर्दनाक थी। राजकुमार को छोड़कर लौटना उनके लिए असहनीय था। जिस मार्ग से वे केवल एक रात में गए थे, उसी मार्ग से शोक और विरह से व्याकुल होकर लौटने में उन्हें आठ दिन लग गए।

जब वे नगर पहुंचे, तो लोगों को राजकुमार का न दिखना बहुत आश्चर्यजनक और दुःखद लगा। चारों ओर एक अजीब सी हलचल मच गई। कुछ लोग क्रोधित होकर छन्दक से कहने लगे,
“तुम राजकुमार को कैसे अकेले छोड़ आए? तुमने उन्हें क्यों नहीं रोका?”

छन्दक ने भावुक होकर उत्तर दिया,
“यह हमारा दोष नहीं है। हमने उन्हें रोकने की बहुत कोशिश की, लेकिन वे स्वयं ही हमें छोड़कर चले गए।
यह सुनकर लोगों का क्रोध शांत हो गया, लेकिन वे राजकुमार को न देख गहरे दुःख में डूब गए।

नगर की स्त्रियाँ भी अट्टालिकाओं (ऊँची छतों और खिड़कियों) पर चढ़कर राजकुमार को देखने के लिए उत्सुक थीं। लेकिन जब उन्होंने देखा कि सिद्धार्थ उनके साथ नहीं हैं, तो वे अत्यधिक दुःखी हो गईं।

संपूर्ण नगर शोक और आश्चर्य से भर गया, क्योंकि सब जानते थे कि राजकुमार सिद्धार्थ कोई साधारण व्यक्ति नहीं थे। उनका वनगमन कोई साधारण यात्रा नहीं थी, बल्कि यह सत्य और ज्ञान की खोज में निकले हुए एक महान आत्मा की शुरुआत थी।

नगर में एक गहरा दुःख फैल गया। जब महल में यह खबर पहुँची कि सिद्धार्थ महल छोड़कर चले गए हैं, तो वहाँ शोक की लहर दौड़ गई। गौतमी, जिन्होंने सिद्धार्थ को माँ की तरह पाला था, जैसे ही यह समाचार सुना, स्तब्ध रह गईं। वह हतप्रभ होकर ज़मीन पर गिर पड़ीं और रोने लगीं। उनके साथ महल की अन्य स्त्रियाँ भी विलाप करने लगीं।

यशोधरा, जो सिद्धार्थ की पत्नी थीं, यह समाचार सुनते ही स्तब्ध रह गईं। उनका शरीर काँपने लगा, आँखों में आँसू उमड़ आए, और उनका चेहरा क्रोध से लाल हो गया। उनकी आवाज़ दर्द और गुस्से से भर गई। उन्होंने सारथी छन्दक से कहा,

“हे छन्दक! तुम तीनों (सिद्धार्थ, घोड़ा कन्थक और तुम) साथ गए थे, लेकिन अब केवल तुम और घोड़ा लौटे हो। यह देखकर मेरा दिल दहशत से भर गया है। हे निर्दयी! तुमने यह कितना अशुभ कार्य किया है! तुम मेरे प्रिय को छोड़कर आ गए और अब आँसू बहा रहे हो? अपने आँसू रोक लो और शांत रहो। ठीक ही कहा गया है कि एक बुद्धिमान शत्रु मूर्ख मित्र से बेहतर होता है। तुमने अपने आपको हमारा मित्र कहा, लेकिन अपनी मूर्खता से पूरे कुल का नाश कर दिया!”

राजमहल में उस रात भारी सन्नाटा था। महारानी यशोधरा का हृदय अशांत था। जब उन्हें पता चला कि राजकुमार सिद्धार्थ महल छोड़कर संन्यास के मार्ग पर निकल गए हैं, तो उनका हृदय दुःख से भर गया। वे विलाप करने लगीं और घोड़े कन्धक को देखते हुए कहने लगीं,

“निश्चय ही यह घोड़ा भी अनर्थकारी है! जैसे रात में चोर चुपके से आकर सब कुछ चुरा लेता है, वैसे ही इसने भी मेरा सर्वस्व मुझसे छीन लिया।”

उनकी इस दुःख भरी वाणी को सुनकर सारथी छन्दक ने उन्हें शांत करने का प्रयास किया। उसने गहरी सांस लेते हुए कहा,

“हे महारानी! कृपया हमें दोष न दें। हम दोनों इस घटना के लिए निर्दोष हैं। यह केवल हमारी इच्छा से नहीं हुआ, बल्कि यह सब किसी दैवी प्रेरणा के कारण संभव हुआ।”

छन्दक ने आगे समझाया,

“जिस समय राजकुमार महल से बाहर जाने लगे, तब कुछ चमत्कारी घटनाएँ घटित हुईं। महल के विशाल द्वार स्वयं खुल गए। घना अंधकार अचानक दूर हो गया, मानो प्रकृति स्वयं उनका मार्ग प्रशस्त कर रही हो। सभी दरवान गहरी नींद में सो गए, और कोई भी जागा नहीं। मैं चाहकर भी उन्हें रोक नहीं सका। ऐसा लग रहा था कि यह केवल उनकी इच्छा नहीं थी, बल्कि देवताओं की प्रेरणा से हुआ।”

नगर में हर तरफ दुख और विलाप का माहौल था। बुद्ध की माता, उनकी पत्नी यशोधरा और नगर के सभी लोग रो रहे थे। हर व्यक्ति दुखी था कि राजकुमार सिद्धार्थ महल छोड़कर चले गए।

इसी बीच, राजा शुद्धोदन अपने पुत्र के मंगलमय जीवन के लिए हवन, पूजा और अन्य धार्मिक अनुष्ठान कर रहे थे। जब वे मंदिर से बाहर आए, तो उन्होंने अपने सारथी चन्दक और उनके घोड़े कन्धक को अकेले खड़ा देखा, लेकिन सिद्धार्थ उनके साथ नहीं थे।

यह देखकर राजा को बहुत बड़ा आघात पहुँचा। वे गहरे शोक में मूर्छित होकर भूमि पर गिर पड़े। पूरे महल में हाहाकार मच गया। राजा के इस दुःख को देखकर उनके मंत्री और वृद्ध पुरोहितों ने उन्हें ढाँढस बँधाया। उन्होंने राजा से आग्रह किया कि उन्हें सिद्धार्थ को मनाने और वापस लाने की अनुमति दें।

राजा ने भारी मन से अनुमति दी। इसके बाद मंत्री और अन्य अनुभवी लोग सिद्धार्थ को ढूँढने और उन्हें समझाकर महल वापस लाने के लिए वन की ओर चल पड़े।

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