सचेतन:बुद्धचरितम्-8 अभिनिष्क्रमण-2 (The Great Renunciation)

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सचेतन:बुद्धचरितम्-8 अभिनिष्क्रमण-2 (The Great Renunciation)

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एक समय की बात है, जब राजकुमार सिद्धार्थ के हृदय में वैराग्य का बीज अंकुरित हो चुका था। उनकी यह भावना इतनी प्रबल हो उठी कि वे अपने पिता और राजा की आज्ञा लेकर एक बार फिर वन की ओर चल पड़े। उनके मन में वन की सुंदरता और प्रकृति के अद्भुत गुणों को निहारने की तीव्र इच्छा थी। वे दूर-दूर तक फैले हरे-भरे वन में गहराई तक गए।

वहाँ पहुँचकर, राजकुमार सिद्धार्थ ने देखा कि किसान हल चलाकर जमीन जोत रहे थे। हल चलते ही जमीन के तृण और कुशायें उखड़ गई थीं, और उसमें रहने वाले छोटे-छोटे कीड़े-मकोड़े मरकर बिखर गए थे। इस दृश्य को देखकर राजकुमार सिद्धार्थ का हृदय द्रवित हो उठा। उन्हें अपने परिजनों की याद आ गई, और उन्होंने महसूस किया मानो उनका स्वजन का बध हो गया हो।

इस दुखदायी दृश्य से उनके मन में विश्व के जन्म और मृत्यु के चक्र पर गहन चिंतन शुरू हो गया। उन्होंने सोचा कि यह जीवन कितना नश्वर है और हर प्राणी कितना असहाय है। इसी चिंतन में डूबे हुए राजकुमार सिद्धार्थ ने उस हरित तृण युक्त सुंदर और पवित्र भूमि पर ध्यान लगाना शुरू किया। वे विश्व के इस जन्म-मृत्यु के रहस्य को समझने के लिए गहरे ध्यान में लीन हो गए और मन की एकाग्रता के मार्ग पर चल पड़े।

बगीचे में चिंतन करते हुए, उन्हें एक अनोखी घटना का साक्षी बनना पड़ा। उनके सामने एक भिक्षु वेष में एक पुरुष प्रकट हुआ, जिसे किसी ने नहीं देखा था। राजकुमार ने उत्सुकता से उससे पूछा, “कहो, तुम कौन हो?”राजा ने करुण स्वर में कहा, “वत्स! अभी तुम्हारे लिए धर्म का समय नहीं आया है। 

वे अपने महल लौटे और सीधे अपने पिता, राजा शुद्धोधन के पास गए। उन्होंने आदरपूर्वक प्रणाम कर कहा, “हे पिताश्री! मुझे अनुमति दें कि मैं संन्यास ग्रहण करूं।

लेकिन सिद्धार्थ का मन अब सांसारिक सुखों में नहीं था। उन्होंने शांत स्वर में उत्तर दिया, “हे राजन! यदि आप मेरी चार इच्छाएँ पूरी कर सकें, तो मैं संन्यास नहीं लूंगा।”

बौद्ध धर्म में, महाभिनिष्क्रमण का मतलब है गौतम बुद्ध का घर छोड़ना. उन्होंने 29 साल की उम्र में सांसारिक समस्याओं से दूर होकर यह कदम उठाया था. इसे बोधि (ज्ञान) प्राप्ति के लिए किया गया गृह त्याग भी कहा जाता है.

राजा ने आश्चर्य से पूछा, “वत्स! कौन-सी चार इच्छाएँ?”

सिद्धार्थ ने गम्भीरता से कहा, “हे पिताश्री! यदि आप यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि—

  1. मुझे कभी मृत्यु का सामना न करना पड़े,
  2. कोई रोग कभी मेरे शरीर को न जकड़े,
  3. बुढ़ापा कभी मेरे यौवन को प्रभावित न करे,
  4. और विपत्ति कभी मेरे सुख-समृद्धि को न हर सके—

तो मैं यह राजसी जीवन स्वीकार कर लूंगा और संन्यास नहीं लूंगा।”

राजा शुद्धोधन गहरे चिंतन में पड़ गए। वे जानते थे कि यह संसार नियमों से बंधा हुआ है, और इनमें से कोई भी शर्त वे पूरी नहीं कर सकते थे। मृत्यु, रोग, वृद्धावस्था और विपत्ति से कोई भी नहीं बच सकता।

राजा ने भारी मन से सिद्धार्थ की ओर देखा, लेकिन उनके पास कोई उत्तर नहीं था। वे समझ गए कि उनका पुत्र अब सांसारिक बंधनों से मुक्त होकर एक महान सत्य की खोज में निकलने के लिए दृढ़ संकल्पित है।

यह वह क्षण था जिसने इतिहास को बदल दिया। यही वह रात थी जब सिद्धार्थ ने संन्यास ग्रहण कर संसार के दुखों का समाधान खोजने के लिए अपनी यात्रा प्रारंभ की। यही यात्रा आगे चलकर उन्हें “बुद्ध” बना देगी, जिनकी शिक्षाएँ आज भी पूरी दुनिया में गूंज रही हैं।

बुद्ध की यह यात्रा केवल उनकी नहीं, बल्कि प्रत्येक मनुष्य की आत्म-जागृति और सत्य की खोज की यात्रा है।

राजा का डर और सिद्धार्थ का संकल्प

राजा शुद्धोदन ने जब यह सुना कि राजकुमार घर छोड़कर मोक्ष की तलाश में जाना चाहते हैं, तो वे बहुत चिंतित हुए। उन्होंने सिद्धार्थ से कहा,
“पुत्र! जो चीज़ असंभव है, उसकी इच्छा करना व्यर्थ है। कोई राजकुमार अपने परिवार और राज्य को छोड़कर संन्यासी नहीं बनता। लोग तुम्हारा उपहास करेंगे!”

लेकिन सिद्धार्थ ने नम्रता से उत्तर दिया,
“पिताजी, जो मोक्ष की इच्छा रखता है, उसे रोकना उचित नहीं है। घर में रहकर भी संसार से मुक्त नहीं हुआ जा सकता।”

राजा को अपने पुत्र की यह बातें समझ में नहीं आईं, और उन्होंने सिद्धार्थ को रोकने के लिए महल में कड़ा पहरा लगवा दिया। उन्होंने सुंदरतम वस्त्र, रत्न, भोजन और सुख-साधनों का प्रबंध किया ताकि सिद्धार्थ की विचारधारा बदल जाए।

भोग-विलास की परीक्षा

एक रात, राजा ने सुंदर अप्सरा-समान युवतियों को राजकुमार सिद्धार्थ के महल में भेजा। वे मधुर संगीत, नृत्य और मनोरंजन के लिए आईं। लगता था मानो स्वर्ग की देवियाँ स्वयं आकर राजकुमार को रिझाने का प्रयास कर रही हों।

लेकिन कुछ भी सिद्धार्थ का मन नहीं मोड़ सका। न सुंदर नृत्य, न मीठे गीत, न ही सुंदर स्त्रियों के मोहक हाव-भाव। वे अंदर से पूरी तरह शांत थे। उनकी आत्मा में एक अलग ही प्रकाश जल रहा था।

देवताओं को यह देखकर आश्चर्य हुआ कि सिद्धार्थ किसी भी प्रलोभन में नहीं फंसे। उन्होंने एक लीला रची—रात के अंतिम पहर में सभी स्त्रियाँ गहरी नींद में सो गईं। कुछ अजीब तरीके से लेटी हुई थीं, किसी के मुँह से लार टपक रही थी, कोई अर्धनग्न होकर अजीब मुद्राओं में सो रही थी।

सिद्धार्थ ने जब यह दृश्य देखा, तो वे चौंक गए।
“यह वही स्त्रियाँ हैं, जो अभी तक मोहक लग रही थीं, लेकिन अब ये सोते समय कितनी अजीब दिख रही हैं! यह संसार कितना अस्थायी और नश्वर है। मनुष्य बाहरी सौंदर्य पर मोहित होता है, लेकिन यह सौंदर्य कितना क्षणिक है।”

ज्ञान की ओर पहला कदम

उन्होंने सोचा, “क्या मनुष्य जीवन का यही उद्देश्य है—भोग, विलास और मोह? नहीं, मुझे इससे आगे बढ़ना होगा, इस संसार के दुखों का समाधान खोजना होगा।”

इसी रात उनके भीतर वैराग्य उत्पन्न हुआ। उन्होंने निश्चय कर लिया कि अब विलासिता और धन-संपत्ति से उनका कोई संबंध नहीं रहेगा। उन्होंने इस नश्वर संसार को छोड़ने और सत्य की खोज में निकलने का निर्णय लिया।

निर्णय की घड़ी

राजकुमार ने अपने प्रिय अश्वारक्षक छन्दक को जगाया और आदेश दिया, “शीघ्र मेरे प्रिय घोड़े कन्थक को लाओ। मैं मोक्ष की राह पर चलना चाहता हूँ। अब यह राजमहल और इसकी विलासिता मुझे नहीं रोक सकती।”

छन्दक ने राजकुमार की बात सुनी, लेकिन उनका मन भारी हो गया। वे जानते थे कि यदि राजकुमार चले गए, तो पूरा राज्य शोक में डूब जाएगा। फिर भी, राजकुमार की आज्ञा मानते हुए, वे अश्व कन्थक को लेकर आए।

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